"भगोरिया के बीच जीवन की आस ढून्ढती तरुणियों के लिए"
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वे मुस्कुरा रही है कि
फाग आ गया और अब जीवन की,
चैत्र प्रतिपदा भी आ जायेगी
आहिस्ता आहिस्ता साँसों में.
वे मुस्कुरा रही है कि
जीवन के रंगों के बीच से,
फीके पड़ रहे बसंत फिर
यवनिका से उभरेंगे.
वे मुस्कुरा रही है कि
अब जीवन की लम्बी दोपहरों से,
शाम के साथ लौट आयेगी
लालिमा उनकी साँसों में.
वे मुस्कुरा रही है कि
अब इकठ्ठे होकर लड़ लेंगी,
अपने पतझड़ से मिलकर
और जीत लेंगी लड़ाई इकठ्ठे.
वे मुस्कुरा रही है कि
अब पीलापन कपड़ों से नहीं,
जीवन से नहीं बल्कि दुनिया से
एक दिन विदा होगा मुस्कुराकर.
वे मुस्कुरा रही है कि
अब अपनी अस्मिता को बचाकर,
पुरी दुनिया में शंखनाद कर देंगी
कि अब वे दुनिया की नागरिक है.
-संदीप नाईक
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