"सुनो ज्ञानरंजन "
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सुनो ज्ञानरंजन आतंकित है
पूरा हिन्दी का संसार तुम्हारी आक्रामकता से
और दबी है हिन्दी की कहानी तुम्हारी कहानियों से
जाता हूँ किसी भी जलसे में साहित्य या कि
आन्दोलन के कामरेडों या कार्यकर्ताओं के बीच तो
निकल ही आता है प्रसंग तुम्हारा या पहल का
देवास के मानकुण्ड गाँव में प्रकाशकांत से सुना था
पहली बार तुम्हारा नाम सन सत्तासी में और देखी थी पहल
फिर इंदौर में विनीत तिवारी से बात की तुम्हारे बारे मे
छपे हुए लोगों को भी अकड़ते देखा है कि
हम पहल में छपे है मानो एक विभाजन रेखा हो
ना छपने वालों और पहल में छपने वालों के बीच
फिर सुना कि तुम्हारी दो चार पांच लिखी कहानियां ही
अमर हो गयी हिन्दी के मुक्ताकाश में
बांची गयी हर जगह, और अनुदित हुई कई कई भाषाओं में
उदाहरण सुनकर मै हैरत में हूँ कि एक जबलपुर का आदमी जो
आधारताल के किसी राम नगर में रहता है और
दुनिया भर में जिसके किस्से सुनाई देते है,
कैसे घूमता होगा यह आदमी और फिर इस पर भी
पहल छापने का मुकम्मल काम ?
पहल सम्मान और वो भी लेखक के शहर में जाकर
उसके घर परिवार को बुलाकर, अपने विरोधियों के बीच
सीना ठोंककर सौंप आता है, कैसा आदमी है ज्ञानरंजन
कहते है एक कागज़ का पन्ना मुफ्त नहीं दिया किसी को
आज जबकि अपनी किताबें और महाग्रंथ लोग बाँट रहे है
ज्ञानपीठ से लेकर मोहल्ले के सस्ते पुरस्कार के लिए
नाम आता है हरनोट का या विंदा करंदीकर का तो जिक्र
पहले पहल का और उससे पहले भी ज्ञानरंजन का आता है
कि ज्ञान जी ने पहल में छापा था 'गांधी मला भेंटला'
वैचारिक बहस के मुहावरे और प्रतिबद्ध लोगों को हांक कर
एक समूचा आन्दोलन कैसे खडा कर लिया तुमने
जबलपुर से लेकर दुनियाभर में कहते है तेजेंद्र भी
सुनो ज्ञानरंजन ये बताओ कैसे पढ़ लेते हो बहादुर पटेल की कविता
छत पर अकेले बैठकर जोर जोर से और फिर धीरे से अपनी
नजरें उठाकर ताक लेते हो खाली पडी छतों पर सुने मकान
उस आधारताल के रामनगर वाले मकान में जहां से नर्मदा भी दूर है
कैसे हिम्मत कर लिख देते हो लम्बी चिट्ठी आज भी
जबकि शब्दों को विकृत कर दिया है एस एम एस और इंटरनेट ने
सुनो ज्ञानरंजन कैसे जुटे रहे इतने साल जबलपुर में रहकर
संसार से और अक्षर, वर्ण और वाक्यों से जोड़ जाड़कर एक
पूरा लेखक वृन्द बना दिया हिन्दी में जो बहस में रहता है हर दम
और हर बात के समाधान के लिए तुम्हारी ओर तकता है
मै आतंकित हूँ ज्ञानरंजन कि कहानी की दुनिया में नाम है
और मै बिलकुल प्रवेशद्वार पर खडा हूँ अभी अभी कोरा पन्ना लिए
दिनेश कुशवाह से पूछता हूँ , कमला प्रसाद से भी पूछा था
सबने कहा कि वो सांगठनिक आदमी है और पहल का पहरेदार
भोपाल में कुमार अम्बुज जिक्र करते है तो सुभाष पन्त देहरादून में
अर्नाकुलम में संतोष, तो मेरठ में मनोज शर्मा, बडौदा में रमेश भाई
हैरत होती है जब कोई कहता है कि अभी ज्ञानरंजन की चिठ्ठी आई थी,
कल ही फोन पर बात हुई या कि अभी हैदराबाद में है परसों लौटेंगे
कैसे कर लेते हो, ये तो बताओ ज्ञानरंजन इतना सब और फिर समय
चंद्रकांत देवताले भी किस्से सुनाते है और प्रभाकर माचवे भी कहते थे
हिन्दी के जगत में इतना आतंक एक आदमी का, डरता हूँ मै
अब कहाँ होंगे ऐसे ज्ञानरंजन और कैसे होंगे क्योकि समय निकलता जा रहा है
अब गुर भी नहीं सिखा रहे अपने होने के, बस अपने में मगन हो
और गुनगुना रहे हो, जोर से बुदबुदाकर क्या कहना चाहते हो क्या यह कि
अभी हिन्दी को एक नहीं हजारों ज्ञानरंजन चाहिए
(ज्ञानरंजन जी के लिए सादर यह कविता )
- संदीप नाईक
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