जीवन बहुत कठोर होता है और परसों (27/9/2014) आखिर में मौत ने फिर घर देख लिया और मेरे सगे छोटे भाई संगीत नाईक जिसे हम प्यार से और पूरा देवास "बाबा" कहता था, को अपने आगोश में ले लिया.
पिछले बारह वषों से जिस जीवन की लम्बी लड़ाई वो लड़ रहा था, अपने दोनों गुर्दे खत्म होने के बाद भी जिस हिम्मत और आशा से उसने लम्बी लड़ाई लड़ी और मौत को हर बार चकमा दिया, परसों आखिर सात दिनों अस्पताल में घेर घार कर मौत ने उसे दबोच ही लिया.
मेरे जीवन में उसे मैंने बचपन से प्यार ही नहीं दिया एक पिता की भाँती उसे पाला और उसके हर पल में मै उसके साथ रहा. तुलसीदास जी कहते है कि जग में सहोदर जैसा कोई नहीं हो सकता और अब मै यह जब आज लिख रहा हूँ तो कुछ शब्द मानो खो गए और वाणी थक से गयी है. बस इतना ही कि मुझे अकेला छोड़कर वो एक लम्बी दूरी पर अनथक यात्रा के लिए निकल गया है अकेला और हम सब बेहद अकेले रह गए है अब.
मै बहुत शुक्रगुजार हूँ लाईफ लाइन अस्पताल इंदौर के पुरे स्टाफ का जिहोने इन बारह वर्षों की लड़ाई में हमारा साथ दिया, इंदौर के सभी पैथोलोजिकल प्रयोगशालाओं का जिन्होंने गाहे बगाहे हमारी मदद की, कई मित्रों का जिन्होंने इस पुरी संघर्षमयी यात्रा में नैतिक साहस दिया, उन ढेरों युवा साथियों का जिन्होंने समय समय पर रक्त दिया और उसे जीवन देते रहे और ये साथी इतने है कि इनका किसी एक का नाम लेने से काम नहीं चलेगा, वे सभी दोस्त जिन्होंने रक्त का इंतजाम करवाने में मदद की और मेरी एक छोटी सी विनती पर दौड़े चले आये, मेरे सोशल वर्क के साथी, मेरे विद्यार्थी और किशोर दोस्त जो खून देते देते कब बड़े हो गए पता ही नहीं चला जैसे पुनीत ढोली या विवेक गुप्ता, और मेरे साथ हर पल रहे, हर कदम पर वरना यह बारह साल की लम्बी यात्रा मै कर ही नहीं पाता, मेरे सभी रिश्तेदार जिनका साहस, हिम्मत और सहयोग मेरे साथ परसों शाम तक और आज भी मेरे साथ बना हुआ है. मेरे परिजन, मेरे भाई संजय, मेरी भाभियाँ, मेरे भतीजे सिद्धार्थ, अनिरुद्ध और अमेय, मेरे दोनों बच्चे अपूर्व और मोहित.......इन सबके बिना मै कितना अकेला और असहाय हूँ आज समझ में आ रहा है.
किस किस का नाम लूं ? समझ में यह आ रहा है कि एक आदमी की मदद कितने लोग करते है और उसके ज़िंदा रहने में हम सबका कितना बड़ा हाथ होता है यह सब कृतघ्नता से याद रखना चाहिए, देवास के दोस्त जिनपर मै अधिकार से कुछ भी कह देता था पर उन्होंने आख़िरी तक मदद की, शिक्षा विभाग के वे सभी कर्मचारी जो उसके साथ यह संत्रास भुगतते रहे और उसे काम पर आने की प्रेरणा देते रहे...
पहले पिता (1989) फिर माँ (2008) और अब भाई का गुजर जाना , जीवन जैसे ठहर ही गया है और दिमाग शून्य हो गया है मानो किसी ने पत्थर रख दिया हो.
बस आज जब मै खेड़ीघाट ( बड़वाह) पर माँ नर्मदा में तीसरे के बाद भाई की अस्थियाँ प्रवाहित कर रहा था तो सारी अस्थियों ने बीच पानी में मेरे चारो ओर एक घेरा बना लिया मानो मोहवश वे बहना ना चाह रही हो.....यह प्रण लिया है कि चाहे जो हो जाए कोई कुछ भी कहे, सारे आरोप और गिले शिकवे मंजूर है, मै मदद करने का अपना उसूल नहीं छोडूंगा और मरते दम तक करता रहूंगा.
शायद इतना ही कर पाया तो मेरे लिए यह पर्याप्त होगा. भाई की यादों को लेकर शीघ्र ही कुछ लिखूंगा और बाकी अस्पताल और डाक्टरों की लूट, चिकित्सा के दुश्चक्र के बारे में भी.
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