हिन्दी का खेमा इतना ज्यादा बंटा हुआ है कि इसमे कोई मरे या जिए, किसी को फर्क नहीं पड़ता. देश में अच्छी पत्रिकाएं लगातार बंद होती गयी. सारिका, गंगा, धर्मयुग से लेकर अब बिंदिया और शुक्रवार और कही कोई अफसोस, धरना और प्रदर्शन नहीं, ना ही कोई सांत्वना के दो शब्द .
इस बीच चतुर सुजानों ने धंधा बनाकर जरुर अपने अपने अखाड़े की पत्रिकाएं चलाकर/बनाकर चालू कर दी और विशुद्ध मुनाफा कमा रहे है जो कि गलत नहीं है. यह इस बात का भी संकेत है कि अब पत्रिकाएं भोले भाले लोग, साहित्य और सरोकारी पत्रकारिता वाले लोग, मुद्दों की समझ रखने वाले लोग या विशुद्ध नौकरी करके बौद्धिक आतंक फैलाने वाले लोग नहीं चला सकते इसके लिये आपको नख दन्त विहीन लोगों से लेकर हर तरह के चालू पुर्जों तक को साधना होगा और पैतरेबाजी करते हुए भरपूर और भद्दे तरीके से मैदान में आना होगा कि आप विचारधारा, उत्तेजक, सनसनी और बाजारीकरण के बीच मार्केट की घटिया रणनीती को अपनाकर अपनी पत्रिका बेचेंगे एकदम नंगई से.
पहले कारण के अलावा अगर हम देखे तो पायेंगे कि दूसरा बड़ा मुद्दा है सामाजिक मीडिया ने इन पत्रिकाओं के असर पर प्रभाव डाला है नागरिक पत्रकारिता के दौर में इनकी विश्वसनीयता और देरी से प्रकाशन पर भी फर्क पड़ता है, तीसरा, लेखको का प्रकाशन में घुसना और व्यावसायिक हो जाना. चौथा, आम लोगों का पत्रिकाओं को ना खरीदना - जहां वे वीक एंड पर हजार रूपये की दारु पी जाते है वहाँ दस रूपये की पत्रिका खरीदने में "रूपया वेस्ट" की थ्योरी अपनाते है जो कि भारतीय समाज में घातक है इसी के चलते एक विचारधारा, असहमति के खिलाफ आक्रोश और असहिष्णुता बढ़ी है, और जो पढ़े लिखे मूर्ख है उन्हें पूछ लो कि पढ़ा क्या तो शून्य के अलावा कुछ नहीं मिलेगा.......
खैर, अब इस पर भी अपढ़ टिप्पणियाँ आयेंगी पर मेरी चिंता अब "शेष बची" पत्रिकाओं को लेकर है - चाहे साहित्य की हो या राजनैतिक सरोकार रखने वाली, और यह सिर्फ हिन्दी की बात नहीं, अंग्रेज़ी में भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है. और अच्छे अखबार भी देखते देखते मर गए, खप गए इतिहास के पन्नों पर और हम कुछ नहीं कर पायें. शुक्रवार और बिंदिया को श्रद्धांजलि देते हुए शेष बची मृत्यु शैया पर जूझ रही पत्रिकाओं के लिए आईये दुआ करें और कामना करें कि बाजारीकरण और धूर्तता से उभरी पत्रिकाओं के बीच हमारी विरासत वाली पत्रिकाएं ज़िंदा रहे और अपनी पैठ इन सब चोरों के बीच बनाकर चलें. आमीन.....!!!
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