"शीशा" बहुत अच्छी कहानी है आदमी के लगातार एकल हो जाने की जो और कही नहीं पर शीशे में अपने लिए योग के मायने तलाश रहा है, और फिर धीरे धीरे तर्क और जीवन के विकल्प खोजता है........और सनकीपन में उसे लगता है कि अब कुछ नहीं शेष है.......बस इसी सबमे वह खोजता रहता है और एक दिन अचानक चुपचाप से समा जाता है उस वीरान शीशे में...
डा जय नारायण त्रिपाठी आई आई टी मुम्बई से पी एच डी है, फेसबुक पर लगातार सक्रीय और लेखन पठन पाठन में बेहद रूचि. इन दिनों नोएडा में शोध और विकास में व्यस्त कम्पनी में वरिष्ठ शोधार्थी के रूप में कार्यरत है. बहुत प्रतिभाशाली और संवेदनशील जय एक युवा और समर्थवान कहानीकार बनने के लिए तत्पर है.
अशेष शुभकामनाएं.
Jai Narayan Tripathi
डा जय नारायण त्रिपाठी आई आई टी मुम्बई से पी एच डी है, फेसबुक पर लगातार सक्रीय और लेखन पठन पाठन में बेहद रूचि. इन दिनों नोएडा में शोध और विकास में व्यस्त कम्पनी में वरिष्ठ शोधार्थी के रूप में कार्यरत है. बहुत प्रतिभाशाली और संवेदनशील जय एक युवा और समर्थवान कहानीकार बनने के लिए तत्पर है.
अशेष शुभकामनाएं.
Jai Narayan Tripathi
"शीशा"
हर रोज़ की तरह आज भी उनका दरवाज़ा बंद था। मैंने खटखटाया तो बंद कमरे से ही हुँकार भर के आने का इशारा कर दिया। यह रोज़ का क्रम था। शाम के भोजन के बाद टहलने जाना हमारी दिनचर्या का अहम अंग हो चुका था। यह शुरु कब से हुआ इसके बारे में स्पष्टतः कह पाना मुश्किल था। हुआ यूँ था कि एक बार वे मुझे रायपुर रोड़ पर मिल गये थे। मेरा भोजन के बाद कुछ देर घूमने जाने का नियम कई वर्षों से जारी था। चूँकि वे उस दिन सहसा मिल गये और आँखों के संपर्क के बाद 'इग्नोर' नहीं किया जा सकता था| नतीजतन उन्हें भी शिष्टाचार के तौर पर मुस्कुराना पड़ा। वैसे भी मकानमालिक को 'इग्नोर' करने में विशेष लाभ नहीं है। महीने में एक बार तो मिलना ही पड़ता है। मेरे घर में और घर के आसपास के किसी भी घर में किसी भी जीवित प्राणी से उनका संपर्क न के बराबर था। मैं एक अपवाद था, वो भी उस 'अनइग्नोरेबल' मुलाक़ात के कारण। उनके कमरे में उनके अलावा किसी ने किसी को कभी आते जाते नहीं देखा था। ख़ैर, मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं थी क्योंकि वो किराया महीने में बाक़ी किरायेदारों से पहले देते थे। उस दिन अचानक मिल जाने के बाद मैंने उन्हें रोज़ साथ घूमने चलने का प्रस्ताव दिया था जो उन्होंने मेरी आशा के विपरीत मान भी लिया था। लेकिन हमारा संपर्क सिर्फ़ उस समय तक ही रहता था। बाक़ी समय मेरा 'ओहदा' भी अन्य सभी की तरह ही था। मैंने भी अन्य लोगों की तरह उनके कमरे में जाने की जुर्रत नहीं की थी। उनके कमरे में (जो कि मेरे घर में था!) उनके अलावा किसी भी और का जाना वर्जित था। ख़ास तौर से झाड़ू पोंछा करने वाले 'मामीसा' के ग़लती से एक बार घुस जाने के बाद हुए घटनाक्रम के बाद तो कोई स्वयं जाने का इच्छुक नहीं था। दरअसल वो भूल गयी थी कि कमरे में नये किरायेदार आये हैं| रोज़ की तरह बिना पूछे वो अंदर घुस गयी थी। ये बात उन्होंने कमरा किराये पर लेने से पहले जोर देकर कही थी कि उनके कमरे में कोई नहीं आना चाहिए| उनका व्यक्तित्व औरों से कुछ अलग था। घंटो घंटों तक कमरे से नहीं निकलते थे। छुट्टी के दिन भी पूरा समय कमरे में ही गुज़ारते थे। उत्सुकता की बात ये थी कि कमरे में ऐसा कुछ नहीं था जो उसे बाक़ी कमरों से विशिष्ट बनाता हो या उसमें अकेले इतना समय गुज़ारा जा सके। बस एक बड़ा सा शीशा था जो कि सामान्यतः घरों में नहीं पाया जाता है। इसकी पुष्टि मामीसा ने भी की थी। मैंने भी दो तीन बार ही उनका कमरा अधखुला देखा था वो भी सिर्फ़ उतने समय के लिये जितने समय में अंदर से बाहर और बाहर से अंदर जाया जा सकता है। कुल मिलाकर उनका कमरा और वो शीशा लोगों की जिज्ञासा के केंद्र थे। पिछले कई महीनों से साथ में घूमने पर भी मैंने इस विषय में कभी बात नहीं की थी। वैसे भी वो पूरे रास्ते भर में इक्की दुक्की बात ही करते थे।
आज की शाम कुछ अलग नहीं थी। आज भी मुझे अॉफ़िस से आते हुए सब्ज़ी लेने जाना था और आज भी खाना खाने के बाद मुझे एसिडिटी होनी थी। पर आज की शाम कुछ अर्थों में विशेष थी। हमेशा गंभीर रहने वाले व्यक्ति के चेहरे पे आज मुस्कुराहट थी। आज शाम उनका व्यवहार कुछ अलग था। चेहरा हल्की ख़ुशी को छिपाने के प्रयास को छिपा नहीं पा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ पा लिया हो एक लंबी प्रतीक्षा के बाद। चलते चलते हम आधा रास्ता भी नहीं पहुँचे थे।
"अच्छा एक बात पूछना चाहता हूँ। कई दिनों से जिज्ञासा थी।"
"हाँ। पूछिये।" यह उनके अच्छे मूड का परिणाम था।
"आपके कमरे में वो जो शीशा है वो इतना बड़ा क्यों है?" वो चुप हो गये जैसे अनपेक्षित प्रश्न पूछ लिया गया हो। थोड़ी देर रुक कर उन्होंने बिना जवाब दिये चलना जारी रखा।
"वैसे ही पूछ रहा था। इतने बड़े शीशों की घरों में सामान्यतः ज़रूरत नहीं होती है। और आप तो वैसे भी अकेले आदमी है।"
"वो शीशा अलग है। उस शीशे से मैं योग करता हूँ।"
"शीशे से योग?" मैंने चौंककर पूछा। "ऐसा कैसे? कभी सुना नहीं।" मैं आश्चर्यमिश्रित कौतूहल की स्थिति में था।
"हाँ। शीशे से।" उन्होंने इतनी सहजता से कहा कि मुझे अपने अज्ञान पे कोई अविश्वास नहीं हुआ। वैसे भी मुझे अध्यात्म में रुचि न के बराबर थी। हाँ, योग की शारीरिक क्रियाओं से में थोड़ा परिचित था टी.वी. के कारण।
"शीशे से आपका मतलब उसी शीशे से है ना जिसमें हम बाल बनाते है?" मैंने वार्तालाप में अपने ज्ञान के स्तर के स्पष्ट हो जाने की चिंता के बग़ैर पूछा।
"जी। वही शीशा।" उन्होंने मेरे 'सिली क्वेश्यन' का जवाब उस तरह दिया जैसे एम.ए.(हिंदी साहित्य) के द्वितीय वर्ष के विद्यार्थी से किसी ने सूर्य के तीन पर्यायवाची पूछ लिये हो।
"लेकिन कैसे? मुझे कुछ समझ में नहीं आया।" मेरी अधीरता बढ़ती जा रही थी।
"योग क्या होता है? ज़रा बताइये।" फ़्लिप-फ़्लॉप की तरह प्रश्न पूछने वाले और उत्तर देने वाले एकदम से बदल चुके थे।
"वो .. वो जो टीवी में ... मुझे भी आता है कपाल-भाति !" मैंने आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया। हालाँकि मेरा क्षणिक आत्मविश्वास उन कॉर्पोरेट मैनेजर्स की तरह था जिनका करियर ताउम्र 'जार्गन्स' पर जीवित रहता है। कपाल भाँति मैंने कभी भी नहीं किया था।
"नहीं।" उनकी मुस्कुराहट ने उनके भावों को शब्दों से ज़्यादा अच्छे तरीके से संप्रेषित कर दिया था। "वो योग का एक छोटा सा हिस्सा है। योग का अर्थ काफ़ी वृहद है।" मेरे अग्यान () का स्तर स्पष्ट हो चुका था।
"योग का अर्थ होता है - मिलन, किसी में मिल जाना, या किसी को किसी में मिला लेना।" उन्होंने राजपाल एंड संस के शब्दकोश की तरह योग के कई अर्थ बता दिये। मैंने सिर्फ़ सिर हिला कर अपनी सहमति और जिज्ञासा प्रदर्शित की। "योग का मतलब है उस एक में मिल जाना"|
"किस एक में?" सहमत हो जाने के बावज़ूद भी मुझे ये परिभाषा संदर्भ में बैठती नज़र नहीं आ रही थी।
"हमारी चेतना एकत्व का एक भाग है। वस्तुत: हम सभी एकक है।"
"वो कैसे?" मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया था फिर भी मैंने चेहरे का गांभीर्य बनाये रखा।
"हमारे अंदर जो आत्मा है वो उसी एक परमात्मा का अंश है। जैसे सागर और बूँद। सिर्फ़ मात्रा का फ़र्क है। बाहर हम अलग अलग हैं लेकिन चेतना के स्तर पर हम सभी एक हैं।" शब्दों और उनके अर्थ दोनों के हिसाब से गंभीरता बढ़ती जा रही थी|
"तो फिर योग क्या है?" मैंने चर्चा को मुख्यधारा में लाने की कोशिश की।
"अगर विज्ञान की भाषा में देखा जाये तो सभी पदार्थ या भौतिक वस्तुएँ ऊर्जा का ही रूप होती हैं। आइंस्टाईन ने जैसा बताया था E = mc^2. हम सभी के अंदर एक ऊर्जा है जो कि ब्रह्मांड़ की संपूर्ण ऊर्जा का एक भाग है। हमारी पृथक ऊर्जा को उस वृहद ऊर्जा में मिला देना ही योग है। आप जिन शारीरिक क्रियाओं की बात कर रहे थे वो इस दिशा में महज एक कदम है। योग के अन्य कई तरीके हैं।"
"पर योग के बीच में शीशा कहाँ से आ गया?"
"मैं शीशे से योग करता हूँ|"
"शीशे से योग! पर वो कैसे संभव है?"
"ध्यान के माध्यम से योग करना योग की एक प्रणाली है। मैं ध्यान के माध्यम से योग करता हूँ। शीशा उसमें मेरी मदद करता है|"
"ज़रा विस्तार से समझाइए|"
"योग के लिये चरम एकाग्रता की ज़रूरत होती है। एकाग्रता के अभ्यास के अलग अलग कई तरीके हो सकते हैं, उदाहरणस्वरूप किसी एक बिंदु पर एकटक देखते रहना जिसे त्राटक भी कहते हैं। लेकिन मैं शीशे से अपनी एकाग्रता बढ़ाता हूँ|"
"शीशे से एकाग्रता का क्या संबंध ?"
"शीशे में खुद को देखते रहना। यही मेरे लिये योग का अभ्यास है।"
"ऐसा कैसा अभ्यास?" ऐसी निरर्थक और उलूल जुलूल बातों के बाद मुझे उनके ज्ञान पे शक़ होने लगा था।
"देखिये। आप शीशे में ख़ुद को देखते है तो आपको कैसा लगता है? हर व्यक्ति ख़ुद को शीशे में सुंदर ही पाता है। इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति शीशे के सामने आकर स्वयं को कुरूप नहीं समझता। शीशा हमें आत्ममुग्ध बनाता है और यदि इस आत्ममुग्धता का सकारात्मक उपयोग किया जाये तो वो एकाग्रता बढ़ाने में सबसे अधिक उपयोगी है।"
"वो कैसे?" मैंने पूछा।
"शीशे के सामने खड़े हो कर स्वयं को निर्निमेष देखते रहना, इस प्रकार कि आप की मंज़िल आप स्वयं हैं। लगातार देखते रहो। धीरे धीरे आप के आस पास की वस्तुएँ धुँधली होने लगेगी। फिर सिर्फ़ आपका चेहरा बचेगा। कुछ और देर बाद सिर्फ़ आँखें बचेगी जो किन्हीं आँखों को देख रही होगी। धीरे धीरे आप स्वयं को विलीन पायेंगे वातावरण में - एकदम भारहीन। तब योग शुरु होगा। एक ऐसा योग जो आपको पूरे ब्रह्मांड़ में मिला देगा। हवा की तरह घोल देगा।"
मुझे शुरुआत में उनकी मानसिक स्थिति को लेकर जो थोड़ा संशय था वो अब विश्वास में बदल चुका था|
"तो आप ऐसा योग कर पाते हैं?"
"हाँ बिल्कुल। मैं हमेशा कई घंटों तक ऐसा करता हूँ।"
"फिर क्या होता है।"
"ये आध्यात्मिक क्रियाएँ बहुत धैर्य माँगती हैं। अधीरता से तो पाया हुआ भी खो जाता है।"
"लेकिन आपने कहा था कि योग का लक्ष्य है किसी में मिल जाना। यहाँ क्या है मिलने को।"
"यहाँ शीशा है जो मुझे ख़ुद का स्वरूप दिखाने में मदद कर रहा है। मेरा प्रतिबिंब भी छलावा नहीं है। उसका भी अस्तित्व है जो मेरी मदद करता है ख़ुद को ख़ुद तक पहुँचाने के प्रयास में।"
"लेकिन आपके इस योग का चरम बिंदु क्या है?" मेरे इस प्रश्न के बाद वो ज़रा चुप हो गये।
"चरम बिंदु है ... इतना अधिक एकाग्र हो जाना कि मेरे प्रतिबिंब और मुझमें कोई फ़र्क ना रहे। मेरा प्रतिबिंब, मेरा सहायक, जितना मैं उससे दूर होता हूँ उतना ही मुझसे दूर हो जाता है और जितना मैं उसके पास जाऊँ वो उतना पास आ जाता है। वो प्रतिबिंब सत्य की तरह है, जितना उसे जानने की दिशा में आगे बढ़ो उतना स्पष्ट होता जाता है। मुझे सत्य को पाना है। इतना अधिक एकाग्र होना है कि उस से योग हो जाये। शीशे में समा जाना है।" वो चुप हो गये थे पर उनके चेहरे की अधीरता
अब भी बोल रही थी।
"लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है!"
"सूक्ष्म दुनिया में कुछ भी हो सकता है। मीरा भी तो कृष्ण की मूर्ति में समा गयी थी। कृष्ण ही उनके लिये सब कुछ थे। प्रेमी, स्वामी ... मीरा के प्रतिबिंब जो मीरा को पुकारते रहते थे उसे ख़ुद में समा लेने को। मुझे भी कोई बुला रहा है।"
हम काफ़ी दूर निकल चुके थे। सामान्यत: हम काॅटन मिल से मुड़ जाते थे, लेकिन आज बातों में कुछ पता नहीं चला।
"हमें लौटना चाहिये। घर पहुँचते काफ़ी देर हो जायेगी।" उन्होने कहा।
मैं विचारों और सूचनाओं के बोझ तले दब गया था और फलत: एक एक कदम मुश्किल से चल पा रहा था| पूरे रास्ते सिर्फ़ यही सोच रहा था कि ये क्या चल रहा था! लगा आज रात नींद नहीं आयेगी।
रात की बातों को मैं बेतुके सपनों की तरह भूल चुका था| वैसे भी एक व्यस्त सुबह साथ में हो तो फिर से रात के लिये जगह लिहाज़ा शाम तक तो नहीं हो पाती है। फिर आज तो सुबह पानी भी आया था*, जो कि हमारे इलाके के लोगों के नियमित जीवन की सबसे महत्वपूर्ण परिघटना होती है| घड़ी ने मेरे नहीं चाहते हुए भी समय से थोड़ा पहले ही नौ बजा दिये थे। मुझे खाना खा कर आधे घंटे में अॉफ़िस पहुँचना था| आज वो उठे नहीं थे अब तक। पानी के वक़्त भी सुबह ७ बजे दरवाज़ा खटखटाया तब भी नहीं खोला था। अख़बार भी अब तक कमरे के बाहर ही पड़ा था| हो सकता हो थके हो! लेकिन फिर भी इतनी देरी से वो कभी नहीं उठते थे! मुझे अचानक से रात वाली घटना याद आयी। सारी बातचीत मेरे दिमाग में घूमने लगी, हालाँकि फिर भी मैंने उसका ज़िक्र किसी से करना उचित नहीं समझा।
बहुत देर तक खटखटाने पर भी कोई आवाज़ नहीं आई। इतने में आस-पड़ोस के लोग भी इकट्ठे हो चुके थे। रोशनदान से झाँकने की कोशिश की गयी। हालाँकि रोशनदान से कमरे का हर कोना नज़र नहीं आ रहा था पर ये सुनिश्चित हो गया था कि पंखे से कोई रस्सी नहीं लटकी है। दरवाज़ा पीटने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो लोगों ने अनहोनी की आशंका जताते हुए दरवाज़ा तोड़ने का निश्चय किया| दायाँ दरवाज़ा धम्म से गिरा, और बायाँ आधा हवा में था आधा बारसोद से अटका हुआ था| बाक़ी लोगों को बाहर ही रुकने का इशारा करते हुए मैं झटके से अंदर दाख़िल हुआ। बिस्तर खाली था! चादर की तहें जमी हुई थी, तकिया भी अपनी जगह था। मैंने चारों और नज़रे दौड़ाई| इधर उधर देखा, पलंग के नीचे भी| कमरे में सिर्फ़ एक मटकी, ताकों में बिछे अख़बारों पे पड़े कुछ कपड़े, किताबों की छोटी अलमारी, और एक बड़ा सा शीशा था| कमरे में स्थिरता और नीरवता थी| मैं फिर से पीछे मुड़ा। सामने सिर्फ़ शीशा था| एकदम साफ़ और अविचलित, जैसे सालों से ऐसा ऐसा का ऐसा हो| कुछ पल को उस के सामने ठहर सा गया| कुछ लोग कमरे में घुसे और धीमी आवाज़ों में कुछ पूछने लगे। मेरा ध्यान शीशे से हटा। मुझे उनके प्रश्नों में कोई दिलचस्पी नहीं थी| फिर से शीशे की और एकटक देखने लगा| आवाज़े मद्धम होती जा रही थी| मैं कुछ देखने की कोशिश कर रहा था| पहली बार शायद ख़ुद को शीशे में देख पा रहा था।
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