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स्मृतियो के दंश और परिवेश से रची कहानियां : देवनाथ द्विवेदी का रचना संसार “और जीने का मोह”



पुस्तक चर्चा:-

स्मृतियो के दंश और परिवेश से रची कहानियां

देवनाथ द्विवेदी का रचना संसार “और जीने का मोह”

“कहानियां हवा में नहीं बना करती, उनका पौधा किसी ठोस जमीन पर खडा होता है, कहानी की जड़े किसी सच से पोषण खींचती है, बाद में उसकी शाखों, पत्तियों, कलियों और फूलों के कल्पना के रंग भी शामिल हो सकते है..” देवनाथ द्विवेदी हिन्दी में वरिष्ठ कहानीकार है और पिछले तीन दशको से कहानी छंद कविता में सक्रीय है, इनकी कहानियां देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आ चुकी है और वे लगातार सक्रीय रहकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते है. कहानी, कविता, यात्रा वृतांत और स्मृति चित्र शैली में लेखन के लिए द्विवेदी जाने जाते है, एक अच्छे कहानीकार होने के नाते वे अपने परिवेश को बखूबी जानते है और यह सब वे अपने पात्रों और रचनाओं में बहुत बारीकी से दर्ज करते है. असल में जिस तरह की पीढी का प्रतिनिधित्व देवनाथ जी करते है वह पीढी अनुशासन मूल्यों, गाँव और देहात की बसाहट के मोह में अभी तक बंधी हुई है और यह कहानी में जब बातें उभरती है तो लगता है कि अपने परिवेश को, इस समय में जब ग्लोबल दुनिया ने लगभग तहस-नहस कर दिया है, इस तरह से देखना और बचाए रखने की जिम्मेदारी हम सबकी है. इस प्रक्रिया में ये कहानियां बहुत दूर तक जाकर रिश्तों, विलोपित होती स्मृतियों के झरोखे बहुत ही मुस्तैदी से खोलती है और समूची भावनाओं के साथ जिस कैनवास पर बात करती है वह थोड़ा अटपटा जरुर लगता है परन्तु आज के बिखराव में आवश्यक भी प्रतीत होता है.

“और जीने का मोह” देवनाथ द्विवेदी का पहला कहानी संकलन है जो दिल्ली के पंकज पुस्तक मंदिर से आया था सन २०१० में परन्तु इस पर चर्चा नहीं हुई, इस तरह से यह महत्वपूर्ण संग्रह चर्चा में आने से रह गया. इस संकलन में लगभग एक दर्जन कहानियां माध्यम और निम्न माध्यम वर्ग के चरित्रों को लेकर लिखी गयी है. कहानियों में घर है, परिवार है, रिश्ते नाते है और संबंधों के दरकने की दास्ताँ है, पति पत्नी के बीच से लेकर दादा नाना और डाक्टर मरीज के बीच बनते बिगड़ते संबंधों की जहाँ बारीक से बारीक विवरणों वाली कहानियां है वही सामाजिक ताने बाने पर प्रश्न उठाता लेखक है, जो बार बार समाज में बदलते परिवेश, मूल्यों और समीकरणों पर टिप्पणी भी करता है. कुल जमा बारह कहानियों में से अधिकाँश का फलक शिक्षा के परिसर से गुजरता है यह इसलिए भी लाजिमी है कि लेखक ने खुद अपनी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा शिक्षा के गलियारों में गुजारा है और अभी भी सक्रियता से वो प्रयोग प्रशिक्षण और शैक्षिक लेखन में बराबार भागीदार है, जाहिर है शिक्षा तंत्र की विसंगतियां, उद्देश्य और उपलब्धियां सामने आनी ही थी. लेखक इन्हें बहुत बारीकी से पकड़ने की कोशिश करता है और दुखद स्वर में विदाई कहानी के बहाने से सामने रखता है. ‘गीली मिट्टी’ जैसे कहानी के बहाने से समाज में पाशविकता और बालमन की गुत्थियों को समझाने का प्रयास भी करता है जहां एक बुजुर्ग एक छोटी से बच्ची पर शारीरिक अत्याचार की कोशिश करता है. संगः की सभी कहानियां अपने साथ देशज शब्द, प्रवाह और सुद्रढ़ भाषा लेकर आती है, कहानी में कथ्य है, सन्देश है, मुहावरे और एक ऐसा परिवेश है जो ठेठ ग्रामीण पृष्ठभूमि को समझने में मदद करता है. अधिकांश कहानियां यहाँ वहाँ छपी है और इन पर गाहे बगाहे बात भी हुई है. देवनाथ जी भावनाओं को महत्त्व देते ही नहीं वरन अपने पात्रों से बदलते समय में अपने लिए एक जगह बनाने की भी पुरजोर मांग करते है. ये कहानियां एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर रुख करती दिखाई देती है जो बहुत ज्यादा मूल्यपरक और सिद्धान्तनुमा जिन्दगी का ककहरा सिखाये. नौकरी में लम्बे समय तक शहर दर शहर की ख़ाक छानने के बाद और बड़े शहरों में रहने के बाद भी उनके अन्दर का गाँव मरता नहीं ना ही गुलबिया मरती है जिसकी टीस एक कहानी में दिखाई पड़ती है पर यहाँ वे समाज में महिला की स्थिति का भी जिक्र करते है कि किस तरह से पुरुषप्रधानता  समाज में एक महिला को दोयम दर्जे का बनाकर उसका समूचा अस्तित्व ख़त्म कर देती है. लेखक भावुक है एक ओर जहां यह पात्रों को न्याय दिलाता है, विसंगति दिखाकर अपनी बात कहता है, वही कही कही गलत बातों को लगता है थोपने की भी हरकत करते दिखाई देता है.

एक ओर लोग है, घटनाएँ है, स्मृतियाँ है, अनुभूतियाँ है, दूसरी ओर शब्द, कैनवास, भाव और सन्देश है जो लेखक अपने दीर्घकालिक अनुभवो के उपजे मन से पुरी शिद्दत से हम सबको देना चाहता है. लेखक सूक्ष्म रूप से लेकर स्थूल रूप तक हर जगह मौजुद है और यही कहानी को बहुत बारीक महीन विश्लेषण देता है. असल में कहानी में विवरण, घटनाएँ और संवाद का बैलेंस मुझे एक चुनौती हमेशा से लगता रहा है, प्रतीकों में कहना और कई बार बहुत लाउड होकर कहना भी सापेक्ष लगता है. अक्सर सारी गड़बड़ यहाँ से शुरू होती है जब लेखक कहानी में विवरण देने लगता है और भाषा में बिम्ब उभारकर अपनी बात कहने लगता है यह तब तक ही जस्टिफाई करता है जब तक पात्र को या घटना को पूर्ण रूपें न्यायोचित ना कर दें पर इस जिद में कई बार अनावश्यक विवरण आ जाते है जो कहानी को कही ख़त्म करते है. देवनाथ जी हालांकि इसमे पुरी सतर्कता जरुर बरतते दिखाई देते है पर पात्रों का मोह और घटनाओं में बारीकी से विवरण देने की कला में सिद्ध हस्त होने से वे कई बार चूक जाते है. यह चुनौती प्रेमचंद से लेकर हिन्दी के तमाम तरह के लेखकों में रही है. कमलेश्वर, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा से लेकर संजीव या ज्ञानरंजन के यहाँ भी विवरणों की भरमार है परन्तु ये विवरण खलते नहीं है क्योकि वे भाषा मुहावरों और शब्दों से ऐसे गुँथे हुए है कि उन्हें पढ़ना बोझिल नहीं लगता. कारण स्पष्ट लगता है कि हर कहानी के शायद कई पाठ कई ड्राफ्ट होते हो इसलिए भाषा में जो लय और चरंणबद्धता दिखती है  वह कहानी को अमर बनाती है. इस संग्रह में वह बार बार ड्राफ्ट करने का अभ्यास कम दिखाई देता है. कई बार लगता है कि कच्ची कहानियां भी लेखक अपने मोह के कारण छोड़ नहीं पाया और संग्रह में संकलित कर लिया, इससे बचा जा सकता था. इस संग्रह के बाद लेखक की लगभग बीस कहानियां और प्रकाशित हो चुकी है, यात्रा वृत्तांत “सफ़र जारी रहे” और “साँसों का संगीत” (2014) जैसे संकलन भी आ चुके है जहां लेखक नई परिपक्वता के साथ अपनी उपस्थिति सार्थक रूप से यह दर्ज कराता नजर आता है. उम्मीद की जाना चाहिए कि देवनाथ द्विवेदी जी की आने वाली कहानियां एक स्पष्ट विचारधारा और ख़त्म होते गाँव और रिश्तों के बीच से निकलकर  आयेंगी और मार्ग प्रशस्त करेंगी.

-संदीप नाईक

अगस्त 9, 2014. 

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