उस दिन की बात थी दफ्तर प्रमुख ने लेनदेन के मसले पर एक अधीनस्थ को पेपरवेट उठाकर निपटा दिया था सेवाभावी था अफसर, सो उसने आव ना देखा ताव और लगा दिया पेपरवेट, खून निकला और टाँके लगे और फ़िर थाने में रपट भी लिखी गयी. जिले के सूचना अधिकारी ने अखबार वालो को ले देकर मामला रफा-दफा कर दिया, एक दो साले चेनल वाले रह गये- दारू समय पर पहुँच नहीं पाई तो उन्होंने इस घटिया सी खबर की प्रादेशिक सुर्खियाँ बटोरी, बस पी एस सी से आया युवा सूचना अधिकारी हतप्रद था उसने इस सेवाराम से रूपया खा लिया था सो इन दोनों में भी ठन गयी. खैर, पुलिस तो जाहिर है खाने के लिए ही पैदा हुई है. दफ्तर में सबको अपना हिस्सा नहीं मिल रहा था सो लोगों ने राजधानी जाकर बूढ़े कमजोर लाचार आयुक्त से शिकायत की कि भैया हम सबको या तो रूपया खाने दो या हम उस सेवाराम के साथ काम नहीं कर सकते, जिसे मारा गया था वो भी इस जत्थे में शामिल था. बस फ़िर क्या था दफ्तर में एक अबोला था और लगभग तीन माह के बाद शासन की कुम्भकर्णी नींद टूटी और नए वित्तीय साल के शुरू होने के दो माह बाद पीटने वाले और मार खाने वाले अफसरों के तबादले के ऑर्डर आ गये. खुशी की लहर तो दौड़ी पर ये क्या... ना सेवाराम टस से मस हो रहा है ना वो मार खाने वाला, बस दफ्तर में खिलाई पिलाई का मामला पूर्ववत जारी है- रोज सरपंच आते है, रोज पूजा पाठ होता है, रामजी की आरती उतारी जाती है, मिठाईयां आती है, नोट के बण्डल उतारे जाते है बड़ी बड़ी गाड़ियों से और फ़िर एक अकेला सेवाराम ही ले जाता है सारी नोटों की गड्डियाँ, दफ्तर हैरान है कि शासन क्या कर रहा है और सबसे मजेदार धृतराष्ट्र को एक बड़ा मोटा चश्मा पहनने के बाद भी कुछ दिखाई नहीं देता आजकल सुना है कि धृतराष्ट्र का दुर्योधन भी राजधानी चला आया है बस रह गयी है तो उसकी कुर्सी जो भयानक रूप से बासती है क्योकि दुर्योधन इसी कुर्सी पर बैठकर डकारे लिया करता था और पादता रहता था काम तो था नहीं बस मंडी की गाड़ी में बैठकर ऐश करता और बेवकूफी सी हरकतों से जिले में प्रशासन की माँ भैन करता रहता था. .....जय हो सेवाराम की, धृतराष्ट्र की और दुर्योधन की (प्रशासन पुराण 50)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
Comments