मुझे लगता है संत सा जीवन
बिताने के लिए हमें दूसरों पर गुस्सा होते समय संयम रखना होगा और वो सारा
गुस्सा अपने ऊपर निकालना होगा और अपने को ही तकलीफ देनी होगी शायद वही
सच्चा संत चरित्र होगा.......शायद इस तरह से हम बचा सकेंगे एक संसार को और
रिश्तों के महीन तंतुओं को जो बुनते है सारा ताना बाना.
हर एक का अपना एक मूल चरित्र
होता है और हर कोई अपने अंदाज में भावों को व्यक्त करता है. मुझे लगता है
मूल स्वभाव को बदलना भावनाओं से बलात्कार होगा...और रही गुस्से की बात वो
तो निकल ही जाए तो बेहतर है, मेरा मानना है कि समझदार आदमी का गुस्सा जहाँ
एक ओर निरर्थक नहीं होता वहीँ दूसरी ओर कभी बेकार नहीं जाता.
अब मुझे अपने निजी
अनुभवों से लगने लगा है कि गुस्सा अपने ऊपर निकाल लू तो ही बेहतर होगा बजाय
इस पर, उस पर, आप पर या व्यवस्था पर निकालने के
बजाय.................क्योक ि
अब सहने की क्षमता खत्म हो गयी है................इससे अच्छा है कि मै अपने
ऊपर नाराज हो जाऊ कुछ तर्पण करू , कुछ गुनगुने पछतावों के बीच जिंदा रहने
का स्वांग या........पुनः अपने को प्रताडित करने की कोशिश.
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