पत्थरों में जीवन खोज पाना बहुधा एक श्रमसाध्य और दुरूह प्रक्रिया है, हमारे दैनंदिन जीवन में और फ़िर बात आये कविता की जो बहुत ही महीन रेशों से बुनी जाती है तो यह दुष्कर भी लगता है, पत्थर को देखने से एकबारगी में जो शुष्क पन उभरता है उस पर हमारी सोच दूर तक जाती है जो दर्शाती है कि हर पत्थर भी एक कहानी कहता है , या कहने का प्रयास करता है , उसका भी एक वृहद इतिहास है, उसमे समाई है एक सभ्यता जो किचिंत प्रयास करने पर सामने आ जाती है. बहादुर पटेल बहुत भिन्न दृष्टि से एक पाषाण को देखते है और फ़िर जो ताना-बाना बुनकर सामने लाते है वो उन्हें कई बातों में मौजूदा कवियों से अलग करता है वे एक पत्थर का बिम्ब रचकर जहां एक ओर पत्थर की बातें करते है वही एक स्त्री को सिलबट्टे पर मसाला पीसते हुए देखकर वे एक भविष्य की ओर भी इशारा करते है कि संगीत और उम्मीदें अंतत पत्थर से ही उपजेगी और ऐसे कठिन समय में जो कवि पत्थर से उम्मीदें लगाएं उसकी लय, जीवन के सप्त्सुरों और आरोह-अवरोहों को दाद दी जाना चाहिए. बहरहाल प्रस्तुत है बहादुर की एक अविस्मरणीय कविता.
पत्थर
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