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पत्थर - बहादुर पटेल की एक स्मरणीय कविता.

पत्थरों में जीवन खोज पाना बहुधा एक श्रमसाध्य और दुरूह प्रक्रिया है, हमारे दैनंदिन जीवन में और फ़िर बात आये कविता की जो बहुत ही महीन रेशों से बुनी जाती है तो यह दुष्कर भी लगता है,  पत्थर को देखने से एकबारगी में जो  शुष्क पन उभरता है  उस पर हमारी सोच दूर तक जाती है जो दर्शाती है कि हर पत्थर भी एक कहानी कहता है , या कहने का प्रयास करता है , उसका  भी  एक वृहद  इतिहास है, उसमे समाई है एक सभ्यता जो किचिंत प्रयास करने पर सामने आ जाती है. बहादुर पटेल बहुत भिन्न दृष्टि से एक पाषाण को देखते है और फ़िर जो ताना-बाना बुनकर सामने लाते है वो उन्हें कई बातों में मौजूदा कवियों से अलग करता है वे एक पत्थर का बिम्ब रचकर जहां एक ओर पत्थर की बातें करते है वही एक स्त्री को सिलबट्टे पर मसाला पीसते हुए देखकर वे एक भविष्य की ओर भी इशारा करते है कि संगीत और उम्मीदें अंतत पत्थर से ही उपजेगी और ऐसे कठिन समय में जो कवि पत्थर से उम्मीदें लगाएं उसकी लय, जीवन के सप्त्सुरों और आरोह-अवरोहों को दाद दी जाना चाहिए. बहरहाल प्रस्तुत है बहादुर की एक अविस्मरणीय कविता.

पत्थर
एक बूँद पानी उतरा है कई बरसों में
पत्थर के सीने में
आग की एक लपट उसके भीतर पहले से ही है मौजूद है
उसकी सख्ती में दोनों का बराबर हाथ है
एक दिन पत्थर और पानी ही गलायेंगे उसे
यह एक किताब की तरह खुलेगा
और अपना इतिहास बताएगा

हमारी सभ्यता के कई टूकडे बिखर जायेंगे आसपास
हम चुनने की कोशिश करेंगे
वे धुल में तब्दील हो जायेंगे
हमारा संदेह उनको कई परिणामों में बदल देगा

पत्थर ही आग पैदा करेगा
वही बचाएगा इस पृथ्वी को टूटने से
वही लौटाएगा हमें हमारा पानी
वह हमारे घरों को बनाएगा
और हम उनमें रहेंगे
वह शामिल रहेगा हमारे स्वाद में
जैसे वह कभी शामिल रहा था हमारे विकास में
वह अक्सर हमारी स्मृतियों में सन्नाता रहता है

हमारा इतिहास पत्थर, आग और पानी के बिना अधूरा है
सभ्यता की किलंगी पर चढ़ा आदमी
इनसे बहुत पीछे है
इनकी गंध हमारे भीतर हवा की तरह रहती है
जब कोई स्त्री सिलबट्टे पर मसाला पीसती है
या घट्टी पीसती है
तब बजता है इन्ही में संगीत
जो सदियों तक हवा में रहेगा मौजूद
और हमारी सभ्यता के बहरे कान सुन नहीं पाएंगे.

-बहादुर पटेल

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