बहुत ही भावुक कर गया मुझे यह
छोटा सा आलेख क्योकि मै खुद दो बार तुम्हारे साथ और एक बार तुम्हारी
अनुपस्थिति में इस घर वो सब महसूस कर चुका हूँ जो सिर्फ "घर' में ही किया
जा सकता है अपनापन, रिश्ते, भावनाएं और मिठास. मकान मालकिन से हम तब और
प्रभावित हुए जब अभी हम लोग गिरते पानी में सुबह सुबह पहुंचे थे और
उन्होंने हम सबके लिए गर्मागर्म चाय और बिस्किट भिजवा दिए और आते समय बोले
जब भी दिल्ली आओ यहाँ जरुर आना और मिलकर जाना...........घर छोड़कर जाने का
दुःख अपना ही होता है और उन यादों को बातों को कोई समझ नहीं सकता. मैंने
खुद ने पिछले पन्द्रह बरसों में चार शहर बदले है और चार घरों में रहा हूँ
तो अपनी दुनिया बसाने और रूम या कमरे को "घर" बनाने की प्रसव पीड़ा से मै
वाकिफ हूँ और रिश्ते हर उस दरों दीवार से बनाए है जिन्हें सींचने में पानी
नहीं खून लगा था आलोक ..........
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