सागर में था पिछले चार दिनों से तो आज थोड़ी फुर्सत मिली सबसे पहले मित्र आशीष के साथ ड़ा हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय में जाने का सोचा. उसके पहले इंक मीडिया स्कूल में गया, रजनीकांत और आशीष से मिलने की रूचि थी. पर अफसोस सिर्फ पांच बच्चे बैठकर मीडिया स्कूल के स्टूडियो में बैठे थे एक गुरूजी उन्हें ज्ञान दे रहे थे. खैर फ़िर विश्वविद्यालय में गये, बड़ी सुन्दर सी पहाड़ी पर बसा है सागर में यह विश्वविद्यालय. जब हिन्दी विभाग पहुंचा तो पूरा विभाग खाली था, एक-दो महिला शोधार्थी एक बड़ी सी मेज़ पर सर पकड़कर बैठी थी, कुछ पूछा मैंने तो वे बोली आप आईये हमें कुछ पता नहीं है, वे सीधे मुझे एक महिला प्राध्यापक के पास ले गई, जो बैठकर कुछ टेबल वर्क कर रही थी. टेबल पर "बुंदेलखंड वसंत" नामक पत्रिका जनपद पंचायत, छतरपुर की पडी हुई थी. जब मैंने पूछा कि आजकल मुक्तिबोध पीठ पर कौन आसीन है तो पता चला कि उन्हें जानकारी नहीं थी, वे वहाँ एसोसिएट प्रोफ़ेसर थी, पर अनभिज्ञ. मैंने जानबूझकर कहा कि एक जमाने में अज्ञेय यहाँ पीठ पर थे, तो अचानक से बोली अज्ञेय का तो नहीं पता पर ......अरे हाँ, वो त्रिलोचन शास्त्री भी थे, कभी-कभी आ जाते थे विश्वविद्यालय में बच्चों को पढाने और बातचीत करने. फ़िर कहने लगी कि कोई श्यामसुन्दर दुबे थे हटा के साहित्यकार पर कभी दिखे नहीं, वो क्वार्टर भी बंद रहता है कई सालों से. फ़िर अनभिज्ञता से पूछा कि ये है क्या सृजन पीठ ?
मुझे याद आया कि वरिष्ठ कवि और भारतीय प्रशासनिक सेवा के होनहार अधिकारी अशोक वाजपेयी जब मप्र में थे तो उन्होंने कई मप्र के कई विश्व विश्वविद्यालय में इस तरह की पीठें स्थापित करवाई थी. सागर में मुक्तिबोध पीठ, उज्जैन में प्रेमचंद पीठ, भोपाल में निराला पीठ आदि. उज्जैन में तो तेजी ग्रोवर से एक बार मिलने हम लोग गये थे और संयोग से वही प्रो कृष्ण कुमार से मुलाक़ात हो गई थी फ़िर हमने देवास एकलव्य में नियमित आयोजित की जाने वाली पाठक गोष्ठी में तेजी ग्रोवर का कविता पाठ और प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार का व्याख्यान भी रखा था. बाद में गाहे-बगाहे हम लोग उज्जैन में जाकर जो भी साहित्यकार प्रेमचंद सृजन पीठ पर आते उनसे मिलने जाते थे.
इन सृजन पीठों स्थापित करने का मुझे जहां तक याद है उद्देश्य यह था कि मिड कैरियर वाले साहित्यकार को दो वर्ष तक किसी सृजन पीठ में नियुक्त किया जाये ताकि वो अपने दैनंदिन चिंताओं को छोड़कर कुछ सार्थक काम करने शान्ति से रह सके, इन्हे एक टाईपिस्ट और एक सपोर्ट स्टाफ भी दिया जाता था. उज्जैन में प्रेमचंद सृजन पीठ पर एक शैलेन्द्र द्विवेदी हुआ करते थे जो खुद अच्छी कविता लिखते थे. इस तरह इस पीठ पर दो वर्ष काम करने के बाद एक अच्छा काम निकल आता था. ये साहित्यकार विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागों में एम ए, एम फिल और पी एच डी के बच्चों से मेरा मतलब छात्रों से भी बात करते थे और हिन्दी विभाग के साथ मिलकर कई गोष्ठियां भी करते थे.
आज ड़ा हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में मुक्तिबोध सृजन पीठ के बारे में सुनकर बहुत बुरा लगा. उस पर से मैंने जब और जानकारी लेना चाही तो कुछ हाथ नहीं आया. यहाँ तक कि लोग नईम, अशोक वाजपेयी, कृष्ण कुमार को भी नहीं जानते विभाग में. एक कविनुमा प्राध्यापक मिले जो बोले कि हम इधर नए लिखने वालों को तो जानते है पर ये मुक्तिबोध पीठ और वरिष्ठों को तो बिलकुल नहीं जानते. थोड़ी देर मै बात करता रहा. मन दुखी था बहुत उम्मीद से गया था कि कुछ सीखकर आउंगा, गप्प लगाकर आउंगा, उस दिन देवास से जब चला था तो प्रकाश कान्त, जीवन सिंह ठाकुर, बहादुर पटेल, सुनील चतुर्वेदी, समीरा नईम और मनीष वैद्य को बड़े गर्व से कहता हुआ आया था कि सागर जा रहा हूँ विश्वविद्यालय घूमूंगा, मुक्तिबोध सृजन पीठ जाउंगा पर आज ऐसे माहौल को देखकर बहुत दुखी महसूस कर रहा हूँ. पता नहीं हिन्दी की दुर्गति हो रही है या प्रगति पर जो भी हो रहा है वो ठीक नहीं हो रहा है. खासकरके विश्वविद्यालयों में जहां रचनात्मकता और सृजन होता था वो धीरे धीरे खत्म हो रहा है और इस बात की चिंता की जाना चाहिए और यह सबका सांझा सरोकार बनना चाहिए.
मुझे याद आया कि वरिष्ठ कवि और भारतीय प्रशासनिक सेवा के होनहार अधिकारी अशोक वाजपेयी जब मप्र में थे तो उन्होंने कई मप्र के कई विश्व विश्वविद्यालय में इस तरह की पीठें स्थापित करवाई थी. सागर में मुक्तिबोध पीठ, उज्जैन में प्रेमचंद पीठ, भोपाल में निराला पीठ आदि. उज्जैन में तो तेजी ग्रोवर से एक बार मिलने हम लोग गये थे और संयोग से वही प्रो कृष्ण कुमार से मुलाक़ात हो गई थी फ़िर हमने देवास एकलव्य में नियमित आयोजित की जाने वाली पाठक गोष्ठी में तेजी ग्रोवर का कविता पाठ और प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार का व्याख्यान भी रखा था. बाद में गाहे-बगाहे हम लोग उज्जैन में जाकर जो भी साहित्यकार प्रेमचंद सृजन पीठ पर आते उनसे मिलने जाते थे.
इन सृजन पीठों स्थापित करने का मुझे जहां तक याद है उद्देश्य यह था कि मिड कैरियर वाले साहित्यकार को दो वर्ष तक किसी सृजन पीठ में नियुक्त किया जाये ताकि वो अपने दैनंदिन चिंताओं को छोड़कर कुछ सार्थक काम करने शान्ति से रह सके, इन्हे एक टाईपिस्ट और एक सपोर्ट स्टाफ भी दिया जाता था. उज्जैन में प्रेमचंद सृजन पीठ पर एक शैलेन्द्र द्विवेदी हुआ करते थे जो खुद अच्छी कविता लिखते थे. इस तरह इस पीठ पर दो वर्ष काम करने के बाद एक अच्छा काम निकल आता था. ये साहित्यकार विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागों में एम ए, एम फिल और पी एच डी के बच्चों से मेरा मतलब छात्रों से भी बात करते थे और हिन्दी विभाग के साथ मिलकर कई गोष्ठियां भी करते थे.
आज ड़ा हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में मुक्तिबोध सृजन पीठ के बारे में सुनकर बहुत बुरा लगा. उस पर से मैंने जब और जानकारी लेना चाही तो कुछ हाथ नहीं आया. यहाँ तक कि लोग नईम, अशोक वाजपेयी, कृष्ण कुमार को भी नहीं जानते विभाग में. एक कविनुमा प्राध्यापक मिले जो बोले कि हम इधर नए लिखने वालों को तो जानते है पर ये मुक्तिबोध पीठ और वरिष्ठों को तो बिलकुल नहीं जानते. थोड़ी देर मै बात करता रहा. मन दुखी था बहुत उम्मीद से गया था कि कुछ सीखकर आउंगा, गप्प लगाकर आउंगा, उस दिन देवास से जब चला था तो प्रकाश कान्त, जीवन सिंह ठाकुर, बहादुर पटेल, सुनील चतुर्वेदी, समीरा नईम और मनीष वैद्य को बड़े गर्व से कहता हुआ आया था कि सागर जा रहा हूँ विश्वविद्यालय घूमूंगा, मुक्तिबोध सृजन पीठ जाउंगा पर आज ऐसे माहौल को देखकर बहुत दुखी महसूस कर रहा हूँ. पता नहीं हिन्दी की दुर्गति हो रही है या प्रगति पर जो भी हो रहा है वो ठीक नहीं हो रहा है. खासकरके विश्वविद्यालयों में जहां रचनात्मकता और सृजन होता था वो धीरे धीरे खत्म हो रहा है और इस बात की चिंता की जाना चाहिए और यह सबका सांझा सरोकार बनना चाहिए.
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