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शिक्षा में एनजीओ और कारपोरेट - एक स्वस्थ बहस

मुझे तो लगता है शिक्षा से सारे कारपोरेट और एनजीओ हट जाये तो शिक्षा का बड़ा एहसान होगा जितना कबाडा इन नौसिखियों ने नवाचार के नाम पर किया है गत साठ बरसों में और शिक्षा और शिक्षकों के नाम पर गढ़ और मठ बनाकर ससुरे बैठे है. इससे तो बेहतर है कि शिक्षा को शिक्षा के नाम पर छोड़ दो और इन सबको बाहर करो अपनी रोजी रोटी और जिंदगी चलाने के नाम पर प्रयोग और कुत्सित कामनाओं के नाम पर पुरे परिदृश्य का कबाडा कर रखा है. मै बहुत जिम्मेदारी और गंभीरता से यह कह रहा हूँ और फ़िर टुच्चे टुच्चे प्रयोग छोटे स्तर पर करने से कोई हालात नहीं सुधर सकते. जो लोग शिक्षा का क, ख, ग , घ नहीं पढ़े वो शिक्षा के रसूखदार बने बैठे है और लाखों कमा रहे है और हालात यह हो गये है कि इनके घटिया प्रयोगों और नवाचारों से हिन्दुस्तान की पीढियां बर्बाद हो गई है और आज देश ने भ्रष्ट, दुराचारी और दानव ही पैदा किये है और इस सबके लिए ये ही जिम्मेदार है. मै एक सच्ची और क्रूर वास्तविकता कह रहा हूँ. जाकर देखिये ग्रामीण क्षेत्रों में किस तरह से अनपढ़ गंवार और मूर्ख किस्म के एनजीओ कार्यकर्ता स्कूलों में प्रयोग कर रहे है किस तरह के लोग वहाँ शिक्षा की बहस कर रहे है, और किस तरह के कार्पोरेटी लोग अपनी रोटी गरीबी से कमा रहे है. ये वो शातिर लोग है जो सब कुछ कर सकते है क्योकि इनके बाप दादे प्रशासन, उद्योगपति घरानों और राजनीती से आते है. शिक्षक से पूछिए कि क्या वो यह सब चाहता है या उसे थोप दिया गया है यह सब.......? जैसे जनगणना, आर्थिक गणना, पशु गणना, चुनाव, नसबंदी और ना जाने क्या क्या......जब तक शिक्षा से ये तथाकथित प्रयोगधर्मी और नवाचारी (बुद्धिजीविता का व्याभिचारी) नहीं हटेगा तब तक शिक्षा का कोई सुधार नहीं कर सकता. करोड़ों रूपये लगाकर शिक्षा में जो औधोगिक घराने स्कूल की सीमा में घूस रहे है उनपर लगाम कसी जानी चाहिए. मप्र में पिछले तीस बरसों में कई संस्थाओं ने शिक्षा की जो दुर्गति की है उसका हिसाब लिया जाना चाहिए. इसमे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी भी शामिल रहे है और तमाम शिक्षाविद भी जो अपने विभाग के लिए सिर्फ कूड़ा-कचरा थे. अब ये ही कारिंदे देश भर में और तमाम वृद्धाश्रमों में शिक्षा की दुर्गत कर रहे है और लालच सिर्फ और सिर्फ रूपया है अपनी संस्था का कॉर्पस जुटाना है बढ़ाना है बस.

Rajesh Utsahi संदीप भाई मैं मान लेता हूं कि आप जिम्‍मेदारी के साथ यह बात कह रहे हैं..इसलिए लगता है कि जिम्‍मेदारी के साथ ही कुछ और बातों का खुलासा भी यहां होना चाहिए..क्‍योंकि आप यहां जो बात कहते हैं उसे लोग गंभीर मानकर उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं। इनमें अधिकांश युवा हैं। किसी भी प्रयास या बात की खिल्‍ली उड़ाना या आलोचना करना आसान होता है। लेकिन जम़ीन पर उतरकर उससे जूझना मुश्किल काम होता है। मुझे मालूम है कि आप केवल खिल्‍ली उड़ाने या आलोचना करने वाले व्‍यक्ति नही हैं। आपने भी अपना पूरा जीवन जमीन से जुडे़ कामों में लगाया है। लेकिन उससे जो हासिल हुआ है उससे एक तरह की हताशा आपके अंदर घर कर गई है। केवल आपमें ही नहीं, हम जैसे कई लोगों के अंदर भी है। लेकिन इस हताशा का यह अर्थ तो नहीं है कि हम सब कुछ छोड़-छाड़कर बैठ जाएं। संदीप भाई आपको इस हताशा से बाहर निकलने की जरूरत है। मैं आपको कोई उपदेश नहीं दे रहा हूं। मुझे लगता है जीवन में सकारात्‍मक चीजें देखने की दृष्टि भी विकसित करनी चाहिए। रास्‍ता उसी में से निकलेगा।

आप केवल शिक्षा की ही बात क्‍यों कर रहे हैं, हर तरह के एनजीओ को बंद करने या हट जाने का आव्‍हान करना चाहिए। अगर हर शासकीय व्‍यवस्‍था या तंत्र अपना काम ठीक से करे तो बाकी किसी की कोई जरूरत ही क्‍यों पड़े। आप जानते हैं मैंने एक-दो नहीं पूरे 27 साल एकलव्‍य में लगाए हैं। और पिछले चार साल से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में हूं।

मैं भी यह मानता हूं कि शिक्षा के क्षेत्र में भी बहुत सारे अधकचरे लोग होंगे, नौसिखिए लोग होंगे। किस क्षेत्र में नहीं होते। आपका उनका विरोध करिए, आप उनकी बात करिए। पर जो लोग गंभीरता से कुछ कर रहे हैं ... उनका अपमान तो मत करिए।

संदीप भाई न भूलें ..कि कभी आप भी एकलव्‍य का हिस्‍सा थे। आपने अपनी युवा अवस्‍था के महत्‍वपूर्ण साल एकलव्‍य में गुजारे हैं। आप भी उन प्रयोगों का हिस्‍सा रहे हैं जो एकलव्‍य ने किए हैं। जो समझ और तर्कशीलता आपने पाई है उसे बनाने में भी एकलव्‍य का योगदान रहा है। संदीप भाई यह भी न भूलें कि आप भी अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन या ऐसे ही अन्‍य फाउंडेशन में काम करने के उतने ही इच्‍छुक हैं जितने कि कई अन्‍य लोग।


बिलकुल सहमत हूँ पर मेरे विकसित होने में एकलव्य का कोई योगदान नहीं है मै जहां भी होता इसी तरह का काम करता यह बात बहुत कचोटती है कि एकलव्य ने मेरा जीवन सुधार दिया एक बार सुनील गुप्ता को एकलव्य के किसी सज्जन ने कह दिया था वह जवाब ऐसा करारा था कि बस.खैर मै उस बहस में नहीं पडना चाहता, सिर्फ यह कि अगर मै, बंधू, दिनेश पटेल या दिनेश शर्मा, प्रकाश कान्त या यतीश भाई जैसे लोग अपना जीवन नहीं खपाते तो सारे सुधार हवा में रह जाते !!! देखा नहीं था बाबरी मस्जिद के बाद क्या दुर्गति हुई थी बड़े आकाओं की. और जहां तक अजीम प्रेमजी की बात है मै चाहता था क्योकि मुझे लगा था कि वहाँ शिक्षा का काम हो रहा है और आर्थिक रूप से वो बेहतर पैकेज दे रहे थे, जिसके लिये आप भी तो भोपाल छोड़कर बेंगलोर गये थे, इसमे गलत क्या है? परन्तु जब मुझे यह लिखित में कहा गया कि शिक्षा में मेरा अनुभव नहीं है बावजूद इसके कि दस साल मैंने CBSE Schools, Army School में और दीगर स्कूलों में पढ़ाया और प्राचार्य का काम किया है, दस साल एकलव्य में काम किया है तो मुझे अजीम प्रेमजी में बैठे मूर्ख शिरोमणि और रिज्युम चयन करने वालों की कमअक्ली पर तरस आया, भोपाल में जिस तरह के लोगों की भर्ती हुई है वह दिखाता है कि क्या शिक्षा की समझ वाले लोग वहाँ बैठे है, यह मेरा नहीं कई वरिष्ठ लोगों का मूल्यांकन है कि शिक्षा के अलावा काम करने वाले यहाँ विशेषग्य है....हा हा हा, खैर मै किसी की योग्यता पर सवाल नही उठा रहा बल्कि आपने याद दिलाया मुझे तो, मै भी "कह ही दूँ के" भाव से कह रहा हूँ. मैंने तय किया कि ऐसे मठ या वृद्धाआश्र्रम में नहीं जाउंगा जो सिवाय कार्पोरेटी चापलूसी के अलावा कुछ नही करते या कर पायेंगे. और अब सवाल निंदा का तो जो काम कर रहे है उनका सम्मान अपनी जगह है और काम की शैली अपनी जगह. मै पुनः कहना चाहता हूँ कि मै बहुत गंभीरता से लिखता हूँ और जो आप कह रहे है कि "आप यहां जो बात कहते हैं उसे लोग गंभीर मानकर उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं। इनमें अधिकांश युवा हैं।" ये युवा कई गुना समझदार है मेरे और हम-आप से, जब हम युवा थे. ये पीढ़ी अपना शोषण नहीं करवाती, ना ही इमोशनल ब्लेकमेल का शिकार है, ना ही छोटे कस्बों से आई है. एक बात तो आप मानेंगे ही कि हम सब एकलव्य में शोषित- दमित थे तभी तो आप भी सत्ताईस बरसों बाद अजीम प्रेमजी में चले गये चाहे कारण जो भी हो आर्थिक, स्वतन्त्रता, या नया करने की ललक...और मै इसलिए बाहर आया कि टाटा का रूपया खाकर / लेकर मै देवास में मई दिवस नहीं मना सकता था और ना ही नुक्कड़ नाटक कर सकता था, पर...... .खैर ! और जहां तक निराशा की बात है वो मुझमे नहीं है मै अभी भी फील्ड में सक्रीय हूँ और कई आन्दोलनों से जुडा हूँ, चीजों को आर-पार देखना निराशा नहीं एक समझदारी है और हर पहलू को पैतालीस की उम्र में जोश से देखने के बजाय समालोचनात्मक तरीके से देखना एक महती जिम्मेदारी और समझदारी हुआ करती है क्योकि इन्ही युवाओं के सामने सच्चाई रखना हमारा काम भी है....शायद आप इससे सहमत हो...राजेश भाई. सकारात्मकता जोश में ही अच्छी होती है मप्र के शिक्षा परिदृश्य से और राजनीती से आप परिचित ही है और एकलव्य का ही उदाहरण ले तो बता दे कि होविशिका का क्या हुआ, या आज एकलव्य का नेतृत्व किसके हाथों में है - यह वही दिल्ली का गेंग है जो उस समय भी हावी था और आज भी हावी है. राजेश और संदीप तब भी उपेक्षित थे और आज भी उपेक्षित ही होते यदि वहाँ सड रहे होते तो जैसे कि हमारे कई साथी है आज भी वहाँ, और एकलव्य का शिक्षा से आज क्या जुड़ाव है सिवाय किताब छापने और बेचने से ज्यादा, या दूसरे राज्यों में कंसलटेंसी आधार पर किताबे ठेके पर तैयार करवाने के अलावा...एनजीओ को हर जगह से हटाना चाहिए या नहीं यह बड़ा मुदा है पर एनजीओ ने जो गन्दगी फैलाई है उसे साफ़ करने में सदियाँ लग जायेंगी यह निश्चित है और यह मै पुनः पुरे "होशो-हवास" में कह रहा हूँ. इसे मेरा फ्रस्ट्रेशन नहीं समय की मांग पर एक सही आकलन और जिम्मेदाराना बयान के रूप में दर्ज किया जाये. मै यह सब इतना व्यक्तिगत नहीं लिखना चाह रहा था परन्तु "आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया" वाला गाना है रफ़ी साहब का ....

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