Skip to main content

महिला दिवस का एक पक्ष यह भी युवा खूंखार पत्रकार और भाई Navodit Saktawat की ज़ुबानी....


महिला दिवस का एक पक्ष यह भी युवा खूंखार पत्रकार और भाई Navodit Saktawat की ज़ुबानी....

"महिलाओं के बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि वे बरसों से दमित, शोषित थी! दमन, शोषण, अत्याचार सहन कर रही थीं और अब पूरे परिदृश्य का शीर्षासन हो गया है. उन्होंने जो कुछ सहा, अब वे वही सब कुछ कर रही हैं. आज महिलाओं से अधिक अनैतिक, अहंकारी, अमर्यादित कोई और नहीं. वे दमन, शोषण, प्रपंच सब कुछ कर रही हैं. कहा जा सकता है कि वे प्रतिशोध ले रही हैं, लेकिन यह प्रतिशोध से अलग, प्रतिक्रिया मालूम होता है, एक कुंठित प्रतिक्रिया, जो उन्हें कहीं नहीं ले जाएगी सिवाय बेहूदगी के. महिलाओं की सारी गरिमा महिला होने में है, लेकिन महिला आज कहीं से कहीं तक महिला नहीं होना चाहती. वे टुच्चा होना चाहती हैं, दुनियादार, दुकानदार होना चाहती हैं, अभद्रता करना चाहती हैं. कभी—कभी तो वे पुरूषों से भी अधिक घटिया नजर आती हैं, यह केवल और केवल पुरूषों की पागल होड के सिवाय कुछ नहीं. नारियों में से नारीत्व विदा हो चुका है. महिला पुरूष जैसे कपडे पहन रही है लेकिन महिलाओं जैसे कपडे नहीं पहन रही. वे पुरूषों की तरह नौकरी की अंधी दौड में शामिल हो रही हैं, यह बात अलग है कि उनमें ना तो पुरूषों के समान योग्यता हो सकती है, ना ही सामर्थय, ना चिंतन, ना मादृा, ना नैतिकता ना गहराई. वे केवल और केवल प्रतिक्रियावादी हैं. कुंठित हैं. इसलिए वे कल भी दया की पात्र थीं, आज भी हैं. आज महिलाओं से अधिक अहंकारी कोई नहीं. बसों में, रेल में, सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं का घोर अहंकार देखा जा सकता है. वे पुरूषों को गहरी हिंसा की निगाह से देखने के बावजूद उन पर निर्भर हैं इसलिए अपना बौनापन स्वयं साबित कर देती हैं. वे पुरूष के समान कंधे से कंधा मिलाकर काम करने का थोथा दंभ पाल रही हैं लेकिन वे स्वयं जानती हैं कि वे कमतर हैं. पुरूष नौकरी करता है जीने के लिए, महिला नौकरी करती है बहुधा समय काटने के लिए या मौज मस्ती के लिए. वे केवल विवाह होने तक जॉब इत्यादि करके अपने सीमित व क्षुद्र तथाकथित जीवन को जी लेना चाहती हैं, वे जानती हैं शादी के बाद उनका गौरवशाली अतीत उन्हें जीने नहीं देगा इसलिए खुद अपने आप से बचती नजर आती हैं. उनका नौकरी करना समाज को कुछ नहीं देता, वे अत्यंत आत्म केंद्रित होती हैं. उनके किए गए काम में ना कोई योग्यता नजर आती है, ना समर्पण, ना लगन, ना प्रज्ञा, ना परिश्रम, ना ही कोई दूरदर्शिता. वे केवल और केवल बार्बी डॉल की तरह टाइम पास करने के लिए जन्मीं प्रतीत होती हैं. इसलिए नारी मुक्ति की बातें केवल आत्म प्रवंचना के कुछ नहीं. इसलिए अंतरराष्टीय महिला दिवस जैसी कोई चीज नहीं, हां भूतपूर्व महिला जैसा शब्द जरूर हो सकता है क्योंकि स्त्रीत्व का तो अवसान हो चुका है. जिस प्रकार अपराधी से नफरत न करके अपराध से नफरत की जाती है, उसी प्रकार नारियों के प्रति गुस्सा या दया का भाव न अपनाया जाकर उनके अहंकार के प्रति दया व गुस्सा जताया जाना चाहिए."
— with Navodit Saktawat in Dewas.

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी व...