पाँवों में टायर की चप्पल, कंधे पर झोला, बदन पर
खादी, होठो पर सिगरेट, हाथों में लाल किताब, जुबान पर अंग्रेजी, दिमाग में
वासना और दिल में बदलाव का स्वप्न लिए ये लोग क्रान्ति की तलाश में आये
थे यहाँ बनखेड़ी होशंगाबाद के पिछड़े इलाके में, एंट्री पॉइंट था 'शिक्षा',
जी हाँ वही शिक्षा - जिसे स्वीकृती देते समय उस समय के तत्कालीन शिक्षा
सचिव ने कहा था कि जितना कबाडा शिक्षा का अभी है उससे ज्यादा ये पढ़े-लिखे
विदेश पलट और जेएनयु दक्ष लोग क्या करेंगे ? बस झमाझम काम शुरू हुआ था,
संस्था में आने वालीयों को स्थानीय लोंढे भी जब निपटाने लगे तो मामला गडबड
होने लगा. (मेरी एक कहानी का अंश)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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