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किस्सागोई करती आँखें - प्रदीप कान्त के पहले संग्रह पर बहादुर पटेल की टिपण्णी.

जैसा की प्रदीप कान्त का व्यक्तित्व सरल सहज है तथा वे अपने व्यवहार सभी का दिल जीत लेने में माहिर हैं. बेहद संवेदनशील हैं वे कविता में जीते है. उनका जीवन व्यवहार ही काव्य व्यवहार है यह उनकी कविताओं में सहज ही देखा जा सकता है. उन्होंने अपने अंदाजे बयां से एक अलग तरह की पहचान बनाई. जो उनकी गजलों को एक तरह की विशिष्टता प्रदान करती हैं.
लम्बे समय से गजल कहते रहे प्रदीप ने धेर्य से अपनी गजलों की पहली किताब परिपक्वता के साथ हमारे सामने प्रस्तुत की. जबकि हम लम्बे समय से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी गजलें पढ़ते रहे हैं. उनकी यह गजलों की किताब “किस्सागोई करती आँखें” आश्वस्त करती हैं. इस संग्रह की रचनाएँ हमें बहुत गहरे में ले जाती है एवं नए अर्थों, जीवनानुभवों और विषयो को परत दर परत खोलती है. तब हम स्थानीयता से जुड़ते हुए इस संसार से निस्पृह नहीं रह पाते हैं.
प्रदीप की इन गजलों को पढ़ते हुए हम इनमे कविताओं का आस्वाद पाते हैं. शायद इसीलिए यश मालवीय उनको किताब की भूमिका में कवि से ही संबोधित करते हैं. कविता और गजल के फार्म से बहार निकलकर हम देखें तो पाएंगे कि उनका सोंदर्य बोध कहन के साथ-साथ जनवादी और स्थानीयता के माध्यम से मालवा और यहाँ की परम्परा जिसमें कबीर, ग़ालिब से लगायत दुष्यंत कुमार से गजल का ककहरा सिखते हुए यहाँ तक आते हैं. जिसमे वे अपने लिए एक अलग जमीन तैयार करते हैं. इसीलिए वे गजलों के साथ-साथ कविता में भी स्वीकार्य हैं.
कविता और जीवन में एक जैसा व्यवहार उनके यहाँ देखने को मिलता है. याने जैसा जीवन वैसी बातें. संग्रह की पहली ही गजल में वे यह संकेत भी देते हैं-
मैं फ़रिश्ता नहीं न होगी मुझसे रोकर कभी भी हंसाने की बातें.
यही उनकी रचनात्मकता की सबसे बड़ी ताक़त हैं. सबसे बड़ी बात यह भी है की वे अपनी बातें गजलों के माध्यम से संवाद करते हुए किस्सागोई अंदाज में कहते हैं जो सीधे संप्रेषित होती है. जीवन और संसार की छोटी-छोटी बातो के बहाने वे गहरी और अर्थपूर्ण बातें कहते हैं. साम्प्रदायिकता, सामजिक विघटन हो या जातिवाद व पूंजीवाद की चमक से भरे पड़े चकाचौंध बाजार सब पर वे बहुत विरलता के साथ प्रहार करते हैं. सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व वे एक खास और बातचीत के अंदाज में करते हैं. समय के साथ मुठभेड़ करने के साथ-साथ सार्थक मुद्दों को सहलाते नजर आते हैं. बहुत कम शब्दों बड़ी बात कह देना एक खास अंदाज और लयात्मकता के साथ. शब्दों को बहुत किफ़ायत से वापरना इन गजलों की ताक़त है.
एक कलम का फ़र्ज़ था जो दिखा वैसा लिखा .
जो जैसा दिखा उसको लिखना बहुत जोखिम भरा काम है लेकिन यह जोखिम प्रदीप उठाते है क्योंकि वे प्रतिबद्ध है अपने लेखन, अपने सरोकारों के प्रति. ये सरोकार ही एक रचनाकार को बड़ा और प्रासंगिक बनाते हैं. अपने जीवन और लेखन में संघर्ष का संतुलन बनाये रखना रचनाकार को लम्बे समय तक जीवित रखता हैं. और मूल्याङ्कन का जहाँ तक सवाल है समय की छलनी करती है. लेकिन प्रदीप के भीतर किसी तरह का कोई भय नहीं है इसीलिए वे कहते हैं –
उनकी दुश्मन क्या हो सियाही रोशनी कभी जिनके घर न थी.
पाश ने कहा था कि सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना. प्रदीप उन सपनों मरने नहीं देना चाहते हैं. वे सपनों को देखते ही नहीं बल्कि उनके साकार होने की आकांक्षा भी रखते हैं. वे सपने जो कभी किसानों और मजदूरों ने देखे थे. वे आज भी बरक़रार हैं. चाहे हमारी सरकारें पूँजी के खेल में उनको कुचलने की भरसक कोशिशें करती रहें. पर हम लड़ेंगे साथी. यहाँ प्रदीप अंदाज देंखें.-
सूखे खेत के सपनों में तो बदल होंगे , बरसात होगी.
किस कदर सिकुड़ कर सोया है वो फटी चादर की औकात होगी.
कबीराना अंदाज भी उनकी गजलों में देखने को मिलता है. वे साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता को निशाना बनाते हैं और मनुष्य बने रहने की ताकीद भी करते हैं.
बस्तियां फूंकने की हवस में बसेरे अपने ही जलाते रहे .
खुद तो इन्सान बन नहीं पाए देव पत्थर के बनाते रहे.
प्रदीप अपनी गजलों में कई रंग और मिजाज के साथ अपनी बात कहते हैं. संवेदना के स्तर के साथ-साथ अपनी बात को प्रभावी बनाते हुए सीधे संवाद करते हैं. जो हमारे मर्म को झकझोरती तो है ही साथ ही उद्वेलित भी करती
हैं. पाठक के भीतर ऊर्जा का संचार घनीभूत रूप से करते हुए काल तुझसे होड़ है मेरी के अंदाज में अपने समय से दो-दो हाथ भी करते हैं.
अपने रंग में उतर अब तो जंग में उतर .
सलीका उनका क्यों अपने ढंग में उतर.
दर्द को लफ्ज यूं दे किसी के रंज में उतर .
बदतर हैं हालात ये कलम ले, जंग में उतर .
अपने में ही गुम है उस दिले तंग में उतर.
इसी तरह ऐतहासिक सन्दर्भों को वे इस्तेमाल करते हैं लेकिन वर्तमान समय और परिस्थियों से उनके अर्थों से एक ऐसा साम्य पैदा करते हैं जिससे उनकी प्रासंगिकता के मायने भी बदलते हैं और इसीसे बड़ी कविता की निर्मिती होती हैं. जैसे वे अपनी गजल में वे कहते हैं –
नहीं सहेगा मार दुबारा गाँधी जी का गाल नया है.
यह नयी कहन पद्धति उनकी कविता की पहचान बनती है और कविता के भीतर का संसार सर्वभोमिकता के संसार में परिणित होता है. लिखने का सच जीवन के सच में बदलता है यही सच लेखन में इच्छाशक्ति पैदा करते हुए एक ऐसे यथार्थ से रूबरू कराता है जिससे हमारा समय कोसो दूर है. फिर भी रचनाकार अपना भरोसा और साहस नहीं खोता है. वह एक उम्मीद के सहारे अपनी राह पर बैलोस चलता रहता है.
फूल को फूल, खार को खार लिक्खा सच को इसी तरह बार-बार लिक्खा.
सरकार और बाज़ार के गठजोड़ से जो स्थितियां निर्मित हुई जिसके फलस्वरूप किसान, मजदूर बदतर हालात में जीने को मजबूर है या फिर आत्महत्या का सहारा लेने को मजबूर है. गरीब और अमीर के बीच की खाई लगातार बढती जा रही है. इन हालातों से कवि बेखबर नहीं है वह इन पर नजर तो रखता ही है साथ ही प्रहार भी करता है.
पहले था जो, अब भी तो आसार वही है आ बैठी है, किस्मत से सरकार वही है
हुनर बेचने का सीखो अब नया आप भी मत सोचो कि अब तक भी बाजार वाही है.
इस संग्रह में ऐसी कई रचनाएँ शामिल हैं जो पाठक को आश्वस्त करती हैं. प्रदीप का पहला संग्रह होने के बावजूद परिपक्वता लिए हुए है. इस पड़ाव के बाद अगले संग्रह में हम इनसे आगे की कविताओं की उम्मीद जरूर करेंगे. बहरहाल उनके इस संग्रह के लिए उन्हें बहुत-बहुत बधाई.

बहादुर पटेल, 12-13, मार्तंड बाग़, तारानी कॉलोनी ; देवास (म.प्र.) 455001 मो. 09827340666

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