अदनान कफील यही नाम था जब एक फेस बुक मित्र ने मुझे कहा कि इसे अपनी सूची में जोड़ ले और उसकी एक-दो गजल और कवितायें भी उन्होंने पोस्ट की थी. यह बात होगी तीन चार माह पूर्व की. मैंने कवितायें पढ़ी और लगभग हतप्रद रह गया था क्योकि सिर्फ अठारह साल का यह लड़का जो उत्तर प्रदेश के बलिया से दिल्ली आया है कंप्यूटर विज्ञान में पढाई कर रहा है और इतनी समझ और बहुत स्पष्ट विचारधारा कि क्या है समाज और क्या है कविता और क्या है अपना रोल. यह लगभग अचंभित करने वाला मामला था. फ़िर धीरे से अदनान से दोस्ती हुई और उसके संकोची स्वभाव को धीरे धीरे तोड़ा और फ़िर फेस बुक पर ही उसकी कवितायें पढ़ी बातचीत की और जब दिल्ली पुस्तक मेले में मिलने का तय किया तो यह बन्दा पुरे दो दिन हम लोगों के साथ रहा. आख़िरी दिन उसने अपनी कवितायें पढ़ी हम सबके सामने तो लगा कि इसकी कवितायें एकदम अलग जमीन पर व्यापक सरोकारों को इंगित ही नहीं करती बल्कि एक साफगोई के साथ समाज की हलचल को अपने सामने रखती है. अदनान की कवितायें ज्यादा प्रभाव डालती है सिर्फ इसलिए नहीं कि वे बेहद युवा है और एक सुलझी हुई कशिश के साथ अपनी बात रखते है बल्कि इसलिए कि वे जान रहे है समझ रहे है पक्ष और सरोकार क्या है, साहित्य और कविता का रोल क्या है. उन्होंने गजले भी लिखी है पर सिर्फ शब्दों की बाजीगरी से गजल नहीं बनती और जो बात कविता में वो जिस दम से कहते है वो गजल में नहीं आ पा रही है फिलवक्त, इसलिए हम सभी ने सुझाव दिया था कि वे कविता को अपना माध्यम बनाएँ और वो सब सामने लाये जो अंदर कही सुलग रहा है. भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के कायल है पर मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है अगर वे इसी तर्ज और आग के साथ लिखते रहे तो शायद वे अपना इरादा बदलेंगे और एक अवाम के लिए कविता की जमीन पर नई क्रान्ति की बुनियाद रखकर बदलाव के सफर का आगाज़ करेंगे. बहरहाल अदनान की कवितायें एक आश्वस्ति देती है कि हिन्दी में अभी अच्छी कविता लिखी जा रही है और नए युवा तुर्क इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे है. यहाँ पेश है अदनान की कुछ कवितायें यकीन है आपको ये पसंद आयेंगी.
बर्बरता और ईसा
प्रिये !
आज ये हृदय
अति व्याकुल है
'औ सदियों से खड़ी
ये हांड-मांस की प्रतिमा
जर्जर हो चुकी है
संसृति की इस
बर्बरता से.
प्रिय ! मेरा रक्त
जो शायद अब भी लाल है
रिस रहा है
संभवतः
मुक्ति की अभिलाषा में .
पैबंद लगे मेरे वस्त्रों से
सड़े मांस की
बू आती है
और नीच भेड़िये
मेरा रक्त पी रहे हैं.
क्या इस दंतेवाड़ा के दौर में
मुक्ति की अभिलाषा में .
पैबंद लगे मेरे वस्त्रों से
सड़े मांस की
बू आती है
और नीच भेड़िये
मेरा रक्त पी रहे हैं.
क्या इस दंतेवाड़ा के दौर में
मेरा अस्तित्व संभव है?
और कितनी सदियों तक
और कितनी सदियों तक
मैं आहार बनता रहूँगा
इन वहशी दरिंदों का ?
और आख़िर कब तक
मरियम जनती रहेगी
एक नए ईसा को ?
इन वहशी दरिंदों का ?
और आख़िर कब तक
मरियम जनती रहेगी
एक नए ईसा को ?
कब तब
कील ठोंके जायेंगे
मेरे इस वजूद में ?
कब तक ?
आखिर कब तक ?
लेकिन शायद
ये इस बात से अनभिज्ञ हैं
कि मेरी
उत्कट जिजीविषा
और मेरे
बाग़ी तेवर
कभी ठन्डे नहीं पड़ सकते.
कील ठोंके जायेंगे
मेरे इस वजूद में ?
कब तक ?
आखिर कब तक ?
लेकिन शायद
ये इस बात से अनभिज्ञ हैं
कि मेरी
उत्कट जिजीविषा
और मेरे
बाग़ी तेवर
कभी ठन्डे नहीं पड़ सकते.
यूँ ही ईसा
पैदा होता रहेगा
चाहे हर बार उसे
सूली ही क्यूँ न चढ़ना पड़े.
अंतिम फैसला
हमारी मेहनत हमारे गहने हैं,
हम अपना श्रम बेचते हैं,
अपनी आत्मा नहीं,
और तुम क्या लगा पाओगे हमारी कीमत?
तुम हमें अपना हक़ नहीं देते,
क्योंकि तुम डरते हो,
तुम डरते हो हम निहत्थों से,
तुम मुफ्त खाने वाले हो,
तुम हमें लाठी और,
बन्दूक की नोक पे,
रखते हो-
लेकिन याद रक्खो,
हम अगर असलहे उठायें,
तो हम दमन नहीं,
फैसला करेंगे.
हमारी मेहनत हमारे गहने हैं,
हम अपना श्रम बेचते हैं,
अपनी आत्मा नहीं,
और तुम क्या लगा पाओगे हमारी कीमत?
तुम हमें अपना हक़ नहीं देते,
क्योंकि तुम डरते हो,
तुम डरते हो हम निहत्थों से,
तुम मुफ्त खाने वाले हो,
तुम हमें लाठी और,
बन्दूक की नोक पे,
रखते हो-
लेकिन याद रक्खो,
हम अगर असलहे उठायें,
तो हम दमन नहीं,
फैसला करेंगे.
आवाज़
मैं तो आवाज़ था,
गूंजता ही रहा,
तुम दबाते रहे ,
हर घड़ी टेटुआ,
तुम सताते रहे ,
पर मिटा न सके,
मैं निकलता रहा ,
इक अमिट स्रोत से,
तेरी हर चोट पे.
तुम कुचलते रहे ,
मैं उभरता रहा,
तुम सितम पे सितम ,
मुझपे ढाते रहे,
लब को सिलते रहे,
अश्क ढलते रहे.
मैं बदलता रहा ,
हर घड़ी रूप को,
तुम तो अनपढ़ रहे ,
मुझको पढ़ न सके,
मेरी चुप्पी में भी ,
एक हुंकार थी ,
मुझमें वो आग थी ,
जो जला देती है,
नींव ऊँचे महल की ,
हिला देती है,
मुझमें वो राग है ,
मुझमें वो साज़ है,
जो जगा देती है ,
इक नया हौसला,
और बना देती है,
इक बड़ा क़ाफ़िला,
एक स्वर ही तो हूँ ,
देखने में मगर,
पर अजब चीज़ हूँ ,
तुम समझ न सके.
खोज
मैं तुम्हारी खोज में,
युगों से रत रहा,
सुबह जब मैं आँख मलते हुए,
उठा ,
और देखा ,
सूरज की किरणों का जाल,
जिसने मेरी अबोध दृष्टि,
उचकने का प्रयास किया,
मैं समझा तुम ,
प्रकाशपुंज हो.
जब भूख ने मुझे,
विचलित किया,
और मैं इसे ,
शांत करने हेतु,
जंगलों में फिरने लगा,
और मैंने नाना प्रकार के,
वृक्षों का अवलोकन किया,
जो सुदृढ़ और विशाल थे ,
मैं समझा तुम सर्वव्पापी,
और हर तरफ से मुझे,
घेरे हुए हो.
फिर मैंने अपने भोजन,
की व्यवस्थित संस्था का,
विकास किया,
कृषि की खोज की,
और एक दिन ओले और तूफ़ान ने,
मेरे फसल को बर्बाद ,
कर दिया ,
तब मैं समझा ये तुम हो,
जो सर्वशक्तिमान हो.
फिर रात ने दस्तक दी,
और मैं तुम्हारी बनाई भूमि पर,
एक फलसफी की भांति,
पसर गया,
और आकाश को,
असंख्य तारा मंडलों से,
सुसज्जित पाया,
मैं चींख उठा,
ये तुम हो,
जो धरती पर नहीं,
बल्कि आसमानों में रहते हो.
और युगों युगों तक,
इन्ही भ्रमों में ,
जीता रहा.
मेसोपोटामिया,मोहन-जोदड़ों,
मिस्र,फारस और यूनान ,
इत्यादि सभ्यताएं ,
मेरी गवाह बनीं.
मैंने तुम्हे प्रस्तर-खण्डों में खोजा,
तो कहीं घाटी की धुंध में,
कभी नार की लपटों में ,
तो कभी शंख-नाद में,
जैसे-जैसे मेरे मस्तिष्क का,
विकास हुआ ,
मैंने वैसे-वैसे तुम में
नए गुणों के दर्शन किये
और उनकी व्याख्या की
तुम्हारे लिए गगन-चुम्बी
प्रतिमाएं और मंदिर बनाए
तुमसे मिन्नतें,मुरादें की
अब तुम मेरी सभी सफलताओं
और असफलताओं के
पर्याय बन गए.
फिर मैं अपने विकास के उत्कर्ष
पर पहुंचा
और अब मैंने तेरी सत्ता
मानने से इनकार कर दिया
क्योंकि अब मैं
अत्याधुनिक हो चुका था .
फिर इस अंधी प्रगति में
मैंने अपनी ही कब्र खोदनी
शुरू की
और एक दिन मेरा ही
बनाया सूरज
मुझे लील गया .
और आज मेरी तुमसे भेंट
हुई
'हा-हा'-
तुम हँसते रहे
मुझ पर सदैव
शायद सोचते होगे
'मैंने भी एक अनोखे जीव की सृष्टि की'.
माफ़ करना
ऐ उर्वशी !!
आज तुम मेरी आँखों में
न देखो
और न मुझसे अपनी मासूम
स्वप्नों की दुनिया में
प्रविष्ट होने का आग्रह
करो.
और न मुझसे
किसी गीत की आशा रखो.
तुम सोच रही होगी
आज मुझे ये क्या हो गया ?
हाँ, मुझे कुछ हो-सा गया है
आज मेरे सुर खो गए हैं
मेरे साज़ भग्न हैं
जहाँ मेरे स्वप्नों की बस्ती थी
वहां अब बस राख
और धुआं है.
मेरी आँखों में विभीषिका के
मंज़र हैं
मत देखो मेरी तरफ
शायद डर जाओगी
इन स्थिर नयनों में
डरावने दृश्य अंकित हैं-
कोई स्त्री चीत्कार और
रोदन कर रही है
तो कोई बच्चा भूख से व्याकुल
स्थिर तर नयनों से
न जाने क्या सोच रहा है ?
जहाँ कोई तथाकथित रक्षक
भक्षक का नंगा भेस लिए
अपने शिकार की टोह में
घूम रहा है.
तुम इन आँखों में
निरीह बेचारों को भी
देख सकती हो
जो एक मकड़-जाल में
उलझे
सहायता की गुहार
लगा रहे हैं.
यहाँ तुम उन मासूमों को भी
पाओगी जिन्हें
हक के बदले गोली देकर
हमेशा के लिए
सुला दिया गया
या कारे की तारीकियों में
फेंक दिया गया
असभ्य और जंगली कह कर.
तुम यहाँ उन बेबस माओं
को भी देख सकती हो
जिनके बेक़सूर चिरागों को
दहशतगर्द कह कर
हमेशा के लिए बुझा दिया गया.
तुम कुछ ऐसे भी दृश्य
देख सकती हो जो
अत्यंत धुधले हो चुके हैं
शायद उनपर समय की
गर्द बैठ गयी है.
क्या गीता,कुरान और
गुरु-ग्रन्थ की आयतें
नष्ट हो गयीं ?
क्या बुद्ध की शिक्षाएं
अपने अर्थ खो चुकीं ?
मालूम होता है उन्हें
दीमकों ने चाट लिया है
फिर बचा ही क्या है
यहाँ ?
मैं नहीं जानता
कहो प्रिये !
मैं कैसे इस कड़वे यथार्थ को
भूल कर
स्वप्नों में विचरण करूँ ?
कैसे प्रणय के गीत रचूं ?
तुम याद आए
तुम याद आए मुझे
जब कभी मैंने
स्वयं को
नितांत अकेले पाया.
तुम तब भी मुझे
याद आये
जब मैं ख़लाओं में
अकेला फिरा.
जब मैं लड़खड़ाया
सघन तिमिर में
मैंने तुम्हें वहां भी
याद किया.
तुम याद आये मुझे
हर उस क्षण
जब मैंने
बसंत और पतझर को
अकेले भोगा.
जब कभी मैं
डरा
सहमा
और टूटा
जीवन की कुरूपता से
तुम याद आये मुझे
वहां भी.
और आज मैं
चकित
अनुत्तरित
लाजवाब
तुम्हारा मुंह ताक रहा
खड़ा हूँ
जब तुम कहते हो
मैंने तुम्हें याद नहीं किया.
खुदा हाफ़िज़
सब सामान पैक कर
लिया मैंने
अब बस सफ़र की
तैयारी है
लेकिन मन में एक
हूक-सी
उठ रही है
एक चिर-परिचित हूक.
ऐसा लगता है
मानो
ये नीम का पेड़
जिसने मेरा बचपन
देखा है
उदास, पथराई आँखों
से
अलविदा कह रहा है
ये बूढ़ा पीपल
जो हर मौसम में
हरा रहने की कला
बखूबी जानता है
आज, चुप
साकित
खड़ा है
ऐसा लग रहा है
मानो
कब्रिस्तान वाले
पोखरे के भूत ने
मेरी कमीज़ के पीछे
भौजाई की तरह
मज़ाक़ में
जैसे
खट्टी-मीठी यादों का
‘लपटा’
चुपके से
चिपका दिया हो
और
मुझ पर ठठा-ठठाकर
हंस रही हो
और मैं
बऊक, बुरबक बना
खड़ा अपना
उपहास देख रहा हूँ
और
पड़ोस की बुढ़िया
‘ईया’
का खँडहर मकान
मानो उन्हीं की आवाज़
में
सकुशल पहुँचने की
दुआ
दे रहा हो
कि –
‘बबुआ ! नीके-नीक
चंहु प’
बाहर वाले दालान से
गुज़रने पर यूँ लगता
है
जैसे कि
अम्मा पास बुला रहीं
हैं
और बुदबुदा रहीं हैं
शायद
‘आयत- अल -कुर्सी’
मुझ पर फूंकने के
लिए
और उनके हाथों का
स्पर्श
मुझ में एक रोमांच
भर रहा है.
गाड़ी चल पड़ी
और उसके साथ
उड़ रही
मेरे गाँव कि माटी
मानो
नंग-धडंग बच्चों कि
तरह
पीछे-पीछे
दौड़ लगा रही है
और
खुदा हाफ़िज़ कह रही
है
और
इस पूरे दृश्य को
मैं
अपनी आँखों में
छिपा लेना चाहता हूँ
न जाने फिर कब
नसीब हो
ये सोंधी खुश्बू
ऐ मेरे गाँव,मेरी
माटी
खुदा हाफ़िज़.
समय का तिलिस्म
समय के हाथ में
एक अद्भुत तिलिस्म होता है
ये जीवितों को मार भी देता है
और मुर्दों को जिंदा भी कर देता है
एक अद्भुत तिलिस्म होता है
ये जीवितों को मार भी देता है
और मुर्दों को जिंदा भी कर देता है
आयामों में
चींखें,रोदन और नारे
हमेशा गूंजते रहते हैं
अनवरत,लगातार,बारम्बार.
राख हो चुकी ज्वाला में भी
चिंगारी दबी होती है
जो कब,कैसे और किस रूप में
भड़क उट्ठे
कोई नहीं जानता
समय का तिलिस्म
बहुत ही खतरनाक और
रोमांचक होता है
जिसकी पेचीदा गलियों में
मैं
अक्सर भटक जाता हूँ
जहाँ कुछ भी स्पर्श करता हूँ
तो सजीव हो उठता है
मेरी आँखों में आँखें डालकर
देखने लगतीं हैं
इतिहास के पन्नों पर दर्ज
तारीखें
जो मानो जवाब पाने
की ही
प्रतीक्षा में बैठीं हों
और मेरे पास उनका
कोई जवाब नहीं होता
और फिर यह तिलिस्म
छटने लगता है
और एक अजीब सी-ख़ामोशी
मुझसे लिपट जाती है.
Comments
अद्भुत अभिव्यक्ति....
शुभकामनाएं!!
अनु