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नदी किनारे से बेचैनी की कथा


जानता तो मै नहीं था उसे, बस कल रात में डेढ़ बजे के आसपास मुझे वैभव ने एक एसएमएस किया था कि मेरे करीबी दोस्त पंकज अग्रवाल ने आत्महत्या कर ली. मैंने कोई जवाब नहीं दिया रात में और फ़िर सुबह भी- क्योकि सुबह से क्या मौत की बात सोचनी. दिन धीरे- धीरे जब चढ़ा और ठंडी हवाओं से बचने मै जब छत पर चढ़ा तो लगा कि एक बार फोन लगाकर पूछूं तो सही. कई बार वैभव को फोन लगाया दोनों नंबर पर, वो उठा नहीं रहा, फ़िर सिद्धार्थ को लगाया तो उसने कहा कि बस हम लोग आ ही रहे है. जब मैंने और खोदकर पूछा तो बोला कि भैया एम्बुलेंस में हूँ लाश के साथ, पंकज के परिजन भी है, सिर्फ बाईस साल का था, कर्जा हो गया था नौकरी थी नहीं और भोपाल में एक दूकान खोल ली थी, बस जब सब कुछ करने के बाद भी कुछ जमा नहीं तो जहर खा लिया थोड़ी देर में पहुँच रहे है, आप आ जाओ, वही नदी के किनारे अंतिम क्रिया होगी. बस बहुत ठन्डे भाव से सिद्धार्थ ने फोन काट दिया था. मै समझ सकता हूँ एक करीबी दोस्त की मौत खबर, संत्रास, और फ़िर उस दोस्त की लाश को दूर शहर से अपने उस शहर में लाना वहाँ - जहां साथ पढ़े, बड़े हुए, चुहलबाजियां की, साथ किशोरावस्था पार करके जवान हुए, सपने साथ देखे  और साथ ही मस्ती की कभी-कभी, फ़िर अचानक से ये क्या हो गया कि उसकी लाश को अपनी गोदी में लिटाकर एम्बुलेंस में लाना पड रहा है. वैभव का फोन ना उठाने का कारण भी समझ रहा हूँ. दिमाग सुन्न हो गया है मेरा, जबकि मै तो उस युवा को जानता ही नहीं था........पंकज आज अचानक इस शब्द का अर्थ याद आया !!! तो क्या इतना कीचड हमारे चहूँ ओर उग आया है कि कोई कमल खिल ही नहीं पा रहा और  मुरझा रहा है समय से पहले, क्या ये वाकई आत्महत्या है या सामूहिक ह्त्या??? हमारे समाज, बाजार और हम सबके  बनाए प्रपंच और अपेक्षाओं की वेदी पर एक तरुण की  ह्त्या और इस पर यह  क्यों बलि चढ गया.....आखिर कैसे निर्णय लिया होगा उसने, इतना जांबाज़ तो कोई होता नहीं इस उम्र में, कैसे सोचा होगा अपना भविष्य? सही है जब हर जगह निराशा हाथ लग रही हो, लोग आपको तौलने में कमतर आंकते हो, जिन्हें आपने एक समय में दिल खोलकर मदद की वे भी कोसने लगे और बात बंद कर दें तो क्या करें कोई, आपकी शिक्षा-दीक्षा और पढाई का कोई मौल ना हो, दोस्त आपसे कन्नी काटने लगे और परिजन आपको सिर्फ हताश देखकर ताने मारें, महत्वपूर्ण जीवन को जब कोई आपकी मजबूरी से जोडकर आपके मजे लेने लगता है तो शायद यही सबसे पहले सूझता है और फ़िर जीवन में जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाता. मै समझ सकता हूँ पंकज तुम्हारा दर्द, समानुभूति शायद यही शब्द है ना जिसे अंग्रेजी में EMPATHY कहते है. सही किया तुमने बिलकुल सही किया. मौत को गले लगाना भी एक बड़ी बेखौफ बहादुरी का काम है और नपुंसक हो चुके खोखले समाज में, अड़े-सडो की दुनिया में उनके बताए उसूलों पर चलने से बेहतर है मौत को गले लगाना. जहां से मै देख रहा हूँ वहाँ पर तुम पहुँच चुके थे पंकज और आज सिर्फ दिल करता है कि तुम्हें सलाम करूँ, तुम्हारी हिम्मत और जज्बे को सलाम करूँ कि तुम इस समाज के परे होकर कुछ तो ठोस कर पाए कि सदियाँ तुम्हें याद रखेगी तुम्हारी हिम्मत, निर्णय और इस दूरंदेशी को  सलाम. क्या घिसट-घिसट कर जीना, ऐसे मनहूसी समाज में जो किसी को उसका मोल नही दे सकता, ना ही कद्र कर सकता है. एक राह जो तुम छोड़ गये हो वो निश्चित  ही आने वाले समय में कई लोगों को प्रशस्त करेगी कि इन दायरों में जीने से बेहतर है अपना जीवन मौत को सुपुर्द कर देना. यह अपनी माई, नर्मदा माई तुम्हें अपने में समा लेगी और लंबे समय तक इसका बहता पानी तुम्हारी हिम्मत और मर्दानगी की यश गाथा सदियों तक सुनाता रहेगा. फ़िर एक बार मन है कहने का पंकज तुम्हारे लिए दोस्त, जिसे मैंने कभी देखा नहीं, मिला भी नहीं, पर आज तुमसे गले मिलने को दिल करता है, तुम्हारे साथ इस लंबे अनजान सफर में निकल पडने को मन मचल रहा है, आज अपने बहुत करीब महसूस कर रहा हूँ सच में, लो कहता हूँ फ़िर से चिल्लाकर , गला फाडकर, सबको सुनाते हुए कि नर्मदे हर, हर, हर...(नदी किनारे से बेचैनी की कथा )

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