लगा तो नहीं था कि ये तुम हो
लगा तो यह था कि यह तुम ही हो
अपनी आवारगी पर मैंने कभी
सोचा ही नहीं और सहजता से कह दिया
तुमने कि जो अपना नहीं हो सकता
वो किसी का नहीं हो सकता
और फ़िर तुमने वो सब याद दिलाया
जो घटित हुआ था किसी कोने में
इसी धरती के एक कोने में
नि:शब्द था मै और भोथरा गया
बेबस सा सोचता रहा क्या कहूँ
यह एक प्रेम की शुरुआत थी या अंत
मुझे नहीं पता पर उस सबको याद
करते हुए मुझे सिर्फ यही लगता है
जीवन में प्रेम कभी पूरा नहीं होता,
होता तो प्रेम भी नहीं कभी पूरा
पर एक आदत सी पड़ जाती है
धरती, चाँद और सितारों के बीच से
जिंदगी को निकालने की बगैर
यह जाने कि सबकी अपनी अपनी
कहानी होती है बगैर यह जाने कि
अक्सर वहाँ धरती आधी अँधेरे में थी
(जानती हो ना आज ये कविता तुम्हारे लिए है)
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