भाई Sidharath Jha
ने एक दुखद खबर शेयर की है कि दिल्ली आकाशवाणी पर चार सौ रूपये दैनिक वेतन
पर काम करने वाले एक लडकी / महिला कर्मचारी जब शौचालय में गई थी तों वहाँ
सीट धंस गई और उसके प्राईवेट पार्ट्स पर गंभीर चोटें आई है उसे इसके लिए
टाँके लगवाने पड़े और हद तों तब हो गई जब उसके साथ इलाज करवाने के लिए कोई
साथ भी नहीं गया. यह हाल है इस देश की राजधानी का और महिलाओं के लिए
सुविधाओं का.
जब दिल्ली आकाशवाणी के ये हाल है तों हमारे प्रदेश के
पिछड़े छतरपुर या रीवा जैसे केन्द्रों की हालत क्या होगी, एक तरफ तों दिल्ली
योजना आयोग में पैंतीस लाख के शौचालय बने है दूसरी ओर ये ज्वलंत उदाहरण
है कि हम महिला मुद्दों के प्रति कितने संवेदशील है. यहाँ होशंगाबाद
कलेक्टर कार्यालय में जो बाहर शौचालय बना है उसमे बारहों महीने पानी टपकता
रहता है और महिलाओं के लिए, जो उसके ठीक बगल में बना है, वहाँ दरवाजा भी
नहीं है. असल में महिला बराबरी की बात तों हम बहुत करते है पर महिलाओं के
लिए कार्यस्थल पर एक अदद शौचालय की व्यवस्था नहीं कर सकते. मैंने अपने काम
के दौरान देखा है जब ये महिलाए अपडाउन
करके किसी गाँव के स्कूल में पढाने जाती है तों सारा दिन उनके लिए शौचालय
नहीं होता और प्राकृतिक संकट के लिए या लघुशंका के लिए कोई जगह नहीं होती,
सारा-सारा दिन मानसिक तनाव में रहती है. स्कूलों में लडकियां भी इसीलिए
आठवी कक्षा के बाद नहीं आती कि वहाँ शौचालय नहीं है. यह बड़ी त्रासदी है और
मजेदार यह है कि सभी बड़े दफ्तरों में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन मूल बातों
पर कभी ध्यान नही देते. अपनी पढाई के दौरान महाराष्ट्र के उस्मानाबाद
जिला मुख्यालय पर हम लोग बीडीओ से मिलने गये थे वहाँ एक नवनियुक्त लडकी
बीडीओ के पद पर पदस्थ थी उसने बताया था कि कैसे उसे शौचालय के लिए लड़ाई
लड़नी पडी थी और जब वो चालू हुआ तों कैसे कार्यालय के पुरुष उस शौचालय में
अश्लील चित्र और ना जाने क्या-क्या लिखते थे, बाद में उसने जब विभागीय
कार्यवाही की तों स्थितियां ठीक हुई. खैर यह घटना दुखद है और निंदनीय है.
आज जब सर्व शिक्षा अभियान, समग्र स्वच्छता अभियान और ना जाने किन किन
योजनाओं के तहत निर्माण कार्य बनाम घपले हो रहे है तों कम से कम कार्य स्थल
पर ढंग से सुरक्षित महिला शौचालय तों सरकार बनवा दे और यह सुनिश्चित करे
कि वे सुरक्षित और "फंक्शनल" हो.........यही से महिला बराबरी के बात शुरू
की जा सकती है.
भाई Sidharath Jha
ने एक दुखद खबर शेयर की है कि दिल्ली आकाशवाणी पर चार सौ रूपये दैनिक वेतन
पर काम करने वाले एक लडकी / महिला कर्मचारी जब शौचालय में गई थी तों वहाँ
सीट धंस गई और उसके प्राईवेट पार्ट्स पर गंभीर चोटें आई है उसे इसके लिए
टाँके लगवाने पड़े और हद तों तब हो गई जब उसके साथ इलाज करवाने के लिए कोई
साथ भी नहीं गया. यह हाल है इस देश की राजधानी का और महिलाओं के लिए
सुविधाओं का.
जब दिल्ली आकाशवाणी के ये हाल है तों हमारे प्रदेश के पिछड़े छतरपुर या रीवा जैसे केन्द्रों की हालत क्या होगी, एक तरफ तों दिल्ली योजना आयोग में पैंतीस लाख के शौचालय बने है दूसरी ओर ये ज्वलंत उदाहरण है कि हम महिला मुद्दों के प्रति कितने संवेदशील है. यहाँ होशंगाबाद कलेक्टर कार्यालय में जो बाहर शौचालय बना है उसमे बारहों महीने पानी टपकता रहता है और महिलाओं के लिए, जो उसके ठीक बगल में बना है, वहाँ दरवाजा भी नहीं है. असल में महिला बराबरी की बात तों हम बहुत करते है पर महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर एक अदद शौचालय की व्यवस्था नहीं कर सकते. मैंने अपने काम के दौरान देखा है जब ये महिलाए अपडाउन करके किसी गाँव के स्कूल में पढाने जाती है तों सारा दिन उनके लिए शौचालय नहीं होता और प्राकृतिक संकट के लिए या लघुशंका के लिए कोई जगह नहीं होती, सारा-सारा दिन मानसिक तनाव में रहती है. स्कूलों में लडकियां भी इसीलिए आठवी कक्षा के बाद नहीं आती कि वहाँ शौचालय नहीं है. यह बड़ी त्रासदी है और मजेदार यह है कि सभी बड़े दफ्तरों में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन मूल बातों पर कभी ध्यान नही देते. अपनी पढाई के दौरान महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिला मुख्यालय पर हम लोग बीडीओ से मिलने गये थे वहाँ एक नवनियुक्त लडकी बीडीओ के पद पर पदस्थ थी उसने बताया था कि कैसे उसे शौचालय के लिए लड़ाई लड़नी पडी थी और जब वो चालू हुआ तों कैसे कार्यालय के पुरुष उस शौचालय में अश्लील चित्र और ना जाने क्या-क्या लिखते थे, बाद में उसने जब विभागीय कार्यवाही की तों स्थितियां ठीक हुई. खैर यह घटना दुखद है और निंदनीय है. आज जब सर्व शिक्षा अभियान, समग्र स्वच्छता अभियान और ना जाने किन किन योजनाओं के तहत निर्माण कार्य बनाम घपले हो रहे है तों कम से कम कार्य स्थल पर ढंग से सुरक्षित महिला शौचालय तों सरकार बनवा दे और यह सुनिश्चित करे कि वे सुरक्षित और "फंक्शनल" हो.........यही से महिला बराबरी के बात शुरू की जा सकती है.
जब दिल्ली आकाशवाणी के ये हाल है तों हमारे प्रदेश के पिछड़े छतरपुर या रीवा जैसे केन्द्रों की हालत क्या होगी, एक तरफ तों दिल्ली योजना आयोग में पैंतीस लाख के शौचालय बने है दूसरी ओर ये ज्वलंत उदाहरण है कि हम महिला मुद्दों के प्रति कितने संवेदशील है. यहाँ होशंगाबाद कलेक्टर कार्यालय में जो बाहर शौचालय बना है उसमे बारहों महीने पानी टपकता रहता है और महिलाओं के लिए, जो उसके ठीक बगल में बना है, वहाँ दरवाजा भी नहीं है. असल में महिला बराबरी की बात तों हम बहुत करते है पर महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर एक अदद शौचालय की व्यवस्था नहीं कर सकते. मैंने अपने काम के दौरान देखा है जब ये महिलाए अपडाउन करके किसी गाँव के स्कूल में पढाने जाती है तों सारा दिन उनके लिए शौचालय नहीं होता और प्राकृतिक संकट के लिए या लघुशंका के लिए कोई जगह नहीं होती, सारा-सारा दिन मानसिक तनाव में रहती है. स्कूलों में लडकियां भी इसीलिए आठवी कक्षा के बाद नहीं आती कि वहाँ शौचालय नहीं है. यह बड़ी त्रासदी है और मजेदार यह है कि सभी बड़े दफ्तरों में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन मूल बातों पर कभी ध्यान नही देते. अपनी पढाई के दौरान महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिला मुख्यालय पर हम लोग बीडीओ से मिलने गये थे वहाँ एक नवनियुक्त लडकी बीडीओ के पद पर पदस्थ थी उसने बताया था कि कैसे उसे शौचालय के लिए लड़ाई लड़नी पडी थी और जब वो चालू हुआ तों कैसे कार्यालय के पुरुष उस शौचालय में अश्लील चित्र और ना जाने क्या-क्या लिखते थे, बाद में उसने जब विभागीय कार्यवाही की तों स्थितियां ठीक हुई. खैर यह घटना दुखद है और निंदनीय है. आज जब सर्व शिक्षा अभियान, समग्र स्वच्छता अभियान और ना जाने किन किन योजनाओं के तहत निर्माण कार्य बनाम घपले हो रहे है तों कम से कम कार्य स्थल पर ढंग से सुरक्षित महिला शौचालय तों सरकार बनवा दे और यह सुनिश्चित करे कि वे सुरक्षित और "फंक्शनल" हो.........यही से महिला बराबरी के बात शुरू की जा सकती है.
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