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भारतीय प्रशासनिक अधिकारी बनाम गधाप्रसाद

भारत में हम सब लोग लोकतंत्र में रहते है और यह सब जानते है कि सारे बड़े निर्णय और काम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते है और वे ही संसद और विधानसभाओं में बैठकर सारे फैसले लेते है और कार्यपालिका उन पर अमल करती है. परन्तु भारत में अभी भी कुछ क्षेत्र ऐसे है जहां इन जन प्रतिनिधियों को दर किनार करके भारतीय प्रशासनिक सेवा के गधाप्रसाद नामक अफसरान सारे निर्णय अपनी तुनकमिजाजी और लगभग तानाशाही भरे अंदाज में करते है. जमीन अधिग्रहण और आवंटन, हथियारों के लायसेंस, खनिजों की खदानों के आवंटन और लायसेंस, मदिरा लायसेंस, जंगल जमीन से जुड़े मुद्दें, ये सब क्यों इनके एकाधिकार में है??? इनका सारा समय जो काम के लिए होता है सिर्फ और सिर्फ इन्ही मुद्दों पर खर्च करते है. अपने समय का निन्यानवे प्रतिशत समय ये समाज के उच्च वर्ग यानी उद्योगपति, रसूखदार, गाँव देहात के जमींदार, नेता, विधायक, हथियारबंद लोगों, खनिज खदानों के मालिक यानी कुल मिलाकर उन लोगों के लिए देते है जो सीधे सीधे इनका फायदा पहुंचाने वाले होते है. और गरीबों के लिए इनके पास ना तों समय है ना कोई सहानुभूति.......मेरे एक मित्र के अनुसार भारतीय संविधान में इन गधाप्रासादों को क्यों एक सुपर स्ट्रक्चर दिया गया है, यह समझ से परे है. फ़िर गरीब लोग क्या करे उनके लिए सरकार ने कुछ चुतियापे बना रखे है जैसे तमाम तरह के फ्लेगशिप कार्यक्रम, जन सुनवाई, समाधान ऑन लाइन, परख, लोकसेवा ग्यारंटी अधिनियम, लोकायुक्त, लोक कल्याण शिविर, अन्त्योदय मेले, आदि आदि. कभी इन जन सुनवाई या मेलों में जाकर देखिये कि जब दूर दराज से कोई ग्रामीण अपने समस्या लेकर आता है तों कितनी घृणा और तिरस्कार से पूरा प्रशासन उसे देखता है, या मप्र में हर सोमवार या मंगलवार को होने वाली टी एल बैठक में कैसे उस गरीब की अर्जी की धज्जियां उडाई जाती है या कभी वीडियो कांफ्रेंस या समाधान ऑन लाइन में बैठकर देखे कि कैसे समस्याओं को ये गधाप्रसाद देखते है और सुलझाते है. सबसे बड़ा सवाल तों यह है कि इन पब्लिक सर्वेंट से मिलाने का समय होता है अरे भैया क्यों काहे का समय, तुम तों इसी जनता की सेवा के लिए बैठे हो, कोई बैठक हो तों ठीक, वरना काहे का समय, और ये कलेक्टर नामक प्राणी क्या करता है कहाँ आता है कब आता कब जाता है क्यों कब किससे मिलता है इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है, और लोर्ड वोइसराय की तर्ज पर चलाये जा रहे राज में प्रजा और सत्ता  के बीच इन मदमस्त हाथियों को हांकने वाला कोई नहीं है. बंद करो भारतीय प्रशासन सेवा के अधिकारियों को इतने पावर देना और इतनी शक्तियां देना कि वे जनता के सेवक होने के बजाय जनता पर गोलियाँ चलाने का हुक्म दे दे, और जनता को अपने मद के नशे में चूर होकर यहाँ से वहाँ विस्थापित कर दे, अपने पद के गुमान में मस्त होकर जनता को दो कोढ़ी का समझकर खुद खुदा बन जाये. भाप्रसे के अधिकारी भारतीय जनता पर ना मात्र एक लादा हुआ बोझ है बल्कि शासन से मिलने वाली सेवाओं को भी ये भकोसते है और जनता के रूपयों की गाढ़ी कमाई का जमकर दुरुपयोग करते है. भाप्रसे के अधिकारियों के खर्च बहुत विचित्र होते है ये बेशर्म लोग अपने आवास में बनाए "बँगला ऑफिस" के खर्चों के नाम पर पुरे बंगले का बिजली का बिल भरते है जिसे कायदे से इन्हें अपनी जेब से भरना चाहिए, इस ऑफिस के नाम पर आये पियर्स के साबुन तक इस्तेमाल करते है, इस ऑफिस के नाम पर आये दूध और अन्य खर्चों से अपने माहभर का राशन निकालते है, हर कलेक्टर के पास आवास के नाम पर दो से तीन एकड़ में फैला आवास होता है, जहां बाकायदा खेती होती है उन्नत किस्म के बीज से लेकर मुफ्त की खाद इस्तेमाल की जाती है और सारा उत्पादित अन्न ये अधिकारी जिम जाते है या बेच देते है, अच्छे से अच्छे किस्म के मवेशी रखे जाते है और इन मवेशियों का दूध इनके बच्चे पीते है, नियमानुसार इन्हें एक चपरासी और एक ही गाड़ी रखने की पात्रता है पर ये गधाप्रसाद अपने बंगले पर चपरासियों की फौज रखते है, सारे विभागों की बेहतरीन गाडियां घर पर अटेच कर लेते है जो इनके बूढ़े बाप-माओं को प्रजापति ब्रह्म कुमारी आश्रम ले जाती है और इनके बच्चों को, बीबी को लाने ले जाने का काम करती रहती है. मित्रों यह जानना बहुत रुचिकर हो सकता है कि कलेक्टर साहब के बँगला ऑफिस का मासिक खर्च क्या है और किन मदों में यह खर्च किया गया है यदि मप्र के पचास जिलों के कलेक्टर साहेबान के बँगला ऑफिस का खर्च निकाल लिया जाये तों मेरा यकीन है कि प्रदेश के एक जिले के वार्षिक योजना का रूपया तों आराम से निकल जाएगा. देश दोस्त यार पूछते है कि क्यों इनके पीछे पड़े हो और मै कहता हूँ कि जब तक इस देश में इन गधाप्रसादों पर लगाम नहीं कसी जायेगी इस देश के हाल सुधर नहीं सकते, अंग्रेजों की थोपी हुई ब्यूरोक्रेसी ने हमें कही का नहीं रखा है और देश के ये प्रशासनिक अधिकारी हमें का नहीं छोड़ेंगे.नेता को तो हम पांच साल बाद बदल सकते है पर इन भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को- पृथ्वी के बोझों को कब तक सहेंगे.........................मुझे बहुत गंभीरता से लगने लगा है कि यह व्यवस्था बदले बिना कुछ नहीं हो सकता.............एक जिले में एक कलेक्टर किसी राजा से कम नहीं होता एकदम अय्याश और मदमस्त हाथी की तरह से जिसकी कोई जिम्मेदारी नहीं ना जवाबदेही..........इन्हें सारी सुविधाएँ चाहिए पर जांच, ऑडिट, कोर्ट-कचहरी, मूल्यांकन, सूचना, सतर्कता समिति, पारदर्शिता, मूल्यपरक प्रशासन, आम आदमी, जन अदालत, लोकसेवा, रैली, धरना, बैठक आदि से बहुत चिढ होती है तभी तों जब इनकी नौकरी पर आती है या जब पानी सर से गुजरने लगता है तों ये धारा एक सौ चवालीस लगाकर मानसिक विक्षिप्तता का भी परिचय दे देते है. मूल रूप से कायर और अपने दायरों में काम करने वाले ये अधिकारी बहुत ही डरपोक और भीरु प्रवृति के होते है जो एक छोटे से आदमी से घबरा जाते है और उस पर हावी होने की कोशिश करते है. झूठे गर्व, दर्प और तथाकथित संभ्रांत मानसिकता के रोग से ग्रसित ये सड़ी-गली मानसिकता से देश को सिर्फ और सिर्फ बर्बाद कर रहे है, जब तक इन्हें इस देश से नहीं हटाया जाएगा देश की हालत नहीं सुधर सकती.



Comments

Anonymous said…
it very true ..and in small district where the administration and politics joins hand , the situation gone even worse...you would have observed that the government has also make provisions for this system...i.e. MP , MLA and Public participation funds are the great example ...the existence of these three types of funds assure every lions its own share .Secondly in village the actual standing committees are going on weaken and weaken every day and the Tadarth committees which are a project basis/short term have all the funds and power...why??

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