प्राकृत
यह एक रेशम केंद्र ही नहीं वरन डेढ़ सौ महिलाओं के लिए जीवन रेखा है जो
रोज- रोज उनके घरों में जीवन में और साँसों में सैकड़ों बार धडकती है और यही
कारण है कि वे हफ्ते में बमुश्किल एकाध छुट्टी लेती हो और साल भर में बहुत
ही किसी महत्वपूर्ण त्यौहार पर. रोज सुबह नौ बजे से इन डेढ़ सौ महिलाओं की
चहल-पहल शुरू होती है तों सूर्यास्त तक जारी रहती है, मशीनों की घरघराहट,
बदबू जिसकी अब उन्हें आदत पड़ गई है, से जी नहीं उकताता बस सूर्योदय के साथ
ही घर के जरूरी काम निपटाकर वे दौड़ी चली आती है इस प्राकृत में जहां ना
मात्र सिर्फ वे काम करती है बल्कि अपने सुख-दुःख आपस में बांटकर, मदद कर,
बतियाकर हलके हो लेती है. रेशम केन्द्र में लाखों कीड़े रोज मारे जाते है
ताकि एक बेहतर किस्म के घागे का निर्माण किया जा सके जो ना सिर्फ सुन्दर
हो, ना सिर्फ टिकाऊ और उपयोगी हो, बल्कि गुणवत्ता में जिसका कोई सानी ना
हो. यह रेशम केन्द्र इन्ही डेढ़ सौ महिलाओं के जीवन में बिलकुल उस कोकून की
तरह है जहां ये रोज-रोज आती है अपने जीवन के उबाल को लेकर और जब दिनभर यहाँ
काम में तपती और पकती है तों हर शाम एक निखार के साथ निकलती है.......हर
सूर्यास्त इन्हें अपने घर गाँव की ओर ले जाता है और फ़िर ये लौट पडती है
अपने घरों में जहां परिवार इंतज़ार कर रहा होता है बच्चे अपनी माँ से मिलने
को बेचैन रहते है ..... ये कहानी है होशंगाबाद में रेशम केंद्र की, जो
होशंगाबाद शहर से चार किलोमीटर दूर मालाखेडी के आगे विशाल परिसर में बना
है. यह केन्द्र मप्र शासन के रेशम संचालनालय द्वारा संचालित है जहां चार
प्रकार के रेशम के कीड़ों को एक प्रक्रिया द्वारा पूरा कर बेहतर किस्म का
रेशम का धागा तैयार किया जाता है. यह धागा फ़िर महेश्वर, राजगढ़ -सारंगपुर
भेजा जाता है ताकि वहाँ के परम्परागत कारीगर अपने हूनर और कौशल से इस घागे
को सुन्दर कपड़ों में बदल सके- साडियाँ, सूट, कुर्ते, और विभिन्न प्रकार के
परिधान इन धागों से तैयार करके बेचे जाते है. हालांकि यह अन्य कपड़ों की
तुलना में काफी महँगा है पर यदि इसे एक पूरी प्रक्रिया के रूप में समझा
जाये तों समझ आएगा कि सौदा महँगा नहीं है और प्रत्यक्ष रूप से हम अपने
परम्परागत कारीगरों, बुनकरों और महिलाओं को रोजगार दे रहे है जो कि आज के
समय में बड़ी बात है जब समूचे विश्व से इस तरह का काम खत्म होने की कगार पर
है. डेढ़ सौ महिलाओं के द्वारा की गई मेहनत और अदभुत संचालन इस केन्द्र को
एक अलग ही पहचान देता है, वन क्षेत्रों में रोजगार की अभिनव पहल है यह जो
वाकई जमीनी स्तर पर फलीभूत होते दिखाई पडती है. मालाखेडी, रायपुर और आसपास
के गाँव की डेढ़ सौ महिलाए यहाँ काम कर रही है सबकी कहानियां गरीबी, मजदूरी
और आवश्यकता से जुडी हुई है. तीन से साढ़े तीन हजार रूपये हर माह तक कमाने
वाली महिलाए यहाँ पिछले बारह बरसों से भी काम कर रही है. सरोज बताती है जब
वो सत्रह बरस की थी तब से यहाँ है, आज उसे बारह साल हो गये है और अपने
परिवार में कमाने वाली है घर गाँव में उसे बहुत इज्जत मिलती है केन्द्र में
सब औरतें उसे सम्मान देती है और उसकी बात मानी जाती है, सरोज कहती है
"काम अच्छा लगता है, कभी झगड़ा नहीं होता, सीखने को बहुत मिला है यहाँ डेढ़
सौ औरतें है जो अपने परिवारों के लिए बड़ी ताकत है. शारदा बी पिछले सात बरस
से यहाँ आ रही है वो कहती है कि मेरे पति छुट्टी मजदूरी करते है और मुझे
बाहर मजदूरी हमेशा नहीं मिलती, जब खेतों में काम होता है तब ज्यादा मजदूरी
मिलती है पर सिर्फ पन्द्रह दिन जबकि यहाँ तों बारह महीनों काम होता है
सिर्फ ईद या ऐसे कोई त्योहारों पर नहीं आती वरना तों रोज आ जाती हूँ. गीता
पिछले सात बरसो से यहाँ काम कर रही है, कहती है "तीन बच्चे है जब पति ने
छोड़ दिया था तों बड़ी दिक्कत हो गई थी, परिवार में कोई सहारा नहीं दे रहा
था, पढाई की नहीं थी, गाँव में ऐसा ही होता है फ़िर जब और गाँव की बहनों से
पूछा तों यहाँ आ गई, काम सीखा, आज मै अपने बच्चों को पाल रही हूँ और पढ़ा भी
रही हूँ.मै किसी पर निर्भर नहीं हूँ. मेरे जैसी यहाँ तीस महिलायें है जो
अकेली है - विधवा, परित्यकता या जिनकी शादी नहीं हो रही. पर हम कमजोर नहीं
है हम खुद कमाती है और अपने पैसों का खर्च और निर्णय हमी लेती है.
ज्ञानवती कहती है "शहतूत, अर्जुन सान और अरंडी के पत्तों पर उगे कीड़ों को
यहाँ लाकर उबाला जाता है बड़े कूकर में, फ़िर उसे सुखाया जाता है और फ़िर इस
कीड़े से घागा निकाला जाता है. धागा भी चार ग्रेड का होता है और सबके रेट
अलग- अलग है. मधु सराठे जो मालाखेडी से आती है वो हंस कर कहती है कि साहब
यह तों आप जैसो के लिए है, इत्ता महँगा रेशम - हम तों यहाँ की एक साडी कभी
नहीं खरीद सकते, यदि खरीद ली, जो अमूमन पांच हजार से शुरू होती है, तों
महीना भर क्या खायेंगे, पर हाँ रेशम का धागा बनाने में जो सुख मिलता है वो
बड़ा अच्छा होता है. सरिता सोलंकी यहाँ गत पांच बरसो से विक्रय प्रबंधक है
वो बताती है कि यह केंद्र सन् 1993 में आरम्भ हुआ था तब से यहाँ पर हजारों
महिलाये काम कर चुकी है, अधिकतर गरीब घरों की महिलाए है जिन्हें मजदूरी के
लिये यहाँ- वहाँ भटकना पड़ता था पर केन्द्र के बन जाने से काफी सुविधा हो
गई है. होशंगाबाद जिले में सोलह जगहों पर यह काम होता है, चार जगहों पर
हमारे विक्रय केन्द्र है और काफी अच्छा रिस्पोंस है. यह केन्द्र सिर्फ यही
के नहीं वरन महेश्वर और राजगढ़ के परम्परागत कारीगरों को भी काम उपलब्ध
कराता है जो कि एक बड़ी बात है. रुकमनी बाई बताती है कि उन्होंने भैंस के
लिए अपने गाँव में काम कर रही एक संस्था से लोन लिया है और वे लगभग आधे से
ज्यादा कर्जा पटा चुकी है यह सब इसी के कारण हो पाया है कि उन्हें यहाँ
बारहों महिने काम मिल रहा है. बातचीत में अधिकाँश महिलाओं ने कहा कि उन्हें
रोजगार ग्यारंटी योजना की जानकारी नहीं है अपने पीले, नीले कार्ड की भी
जानकारी नहीं है, हाँ गाँव की राशन की दूकान से चालीस किलो अनाज मिल जाता
है और हर ग्राम सभा में वे जरुर जाने का प्रयास करती है . सरस्वती बाई
कहती है कि हम मेहनत कर रहे है ताकि हमारी लडकियां और बच्चे कम से कम एक
दिन इस रेशम केन्द्र के कपडे खरीदकर पहन सके. ये सपना ही उनका जीवन है और
ये डेढ़ सौ महिलाए बरसों से अपने आपको एक कीड़े के मानिंद रोज उबालकर- सुखाकर
उस समाज के लिए रेशम का धागा बून रही है- वो महीन से महीन कीमती धागा जो
आने वाले समय में एक स्वस्थ शिक्षित और जागरूक समाज का कपड़ा बनेगा.
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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