क्या जीवन ऐसा हो सकता है की हम, हम ना रहे, मै, मै ना रहूँ और तू , तू ना रहे...........
तो फिर क्या होगा यह तय करना है मुझे, तुम्हे, उसे, इसे और हम सबको............
और फिर निकल पड़ना है एक अनंत आकाश की ओर, एक अथक निर्जीव देह के साथ नितांत अकेले ........
निष्णात होकर, निसंग होकर, निस्तब्ध होकर और निस्तेज सा..........
ताकि वो सब पा सके जो निरंतरता बनाए रखता है जीवन की इस आपाधापी में .......
क्योकि जीवन एक प्यास का गहरा कुआ है जिसकी झिरें बूझ चुकी है यहाँ तक आते-आते......
इस बियाबान में.....
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