मेरी दुर्गा वाली कल की छोटी सी कहानी से मैंने जीवन में इतना सम्मान कभी नहीं पाया , आज उदय प्रकाश जी ने इस पोस्ट पर एक अदभुत कविता लिखी है और कहा है कि " और आभार अफलातून भाई और संदीप के सरोकारों को, जिसकी ज़रुरत हमारी किसी भी महत्वाकांक्षा से बहु बहुत बड़ी है...." मेरे लिए यह सबसे बड़ा सम्मान है. आपके लिए यह कविता साझा कर रहा हूँ.....
(अभी-अभी प्रिय अफलातून जी के वाल पर देखा संदीप नाईक की पोस्ट 'दुर्गा', जो कुली है, बैतूल के रेलवे प्लेटफार्म पर, का चित्र. उसी की प्रतिक्रया में ये कुछ शब्द...)
एक सौ नब्बे किलो का असबाब सिर पर उठाए
प्लेटफार्म पर चल रही है इक्कीस साल की सांवली दुर्गा....
दुर्गा
क्या किसी भील या संथाल, कोल, बैगा या पनिका की बेटी है ?
क्या उसके मोटे सुन्दर होठों, चपटी मासूम नाक
और समूची सभ्यता को संदेह की नज़र से देखती भेदती आँखों की मुक्ति के लिए ही
अफ्रीका में लड़े थे नेल्सन मंडेला और बैरिस्टर मोहनदास करमचंद
क्या इसी दुर्गा के लिए गाया था जूनियर मार्टिन लूथर किंग ने :
'हम होंगे कामयाब ....होंगे कामयाब एक दिन ...'
'वेंसेरेमास......वेंसेरेमास ....' कहते हुए बोलीविया -कोलंबिया के घने जंगलों में मारा गया था
चे गुवेरा ...
कहाँ से आये होंगे दुर्गा के पितर और पूर्वज
छोटा नागपुर, झाबुआ, पलामू, उड़ीसा, आन्ध्र
या सोवेतो, जोहेनेसबर्ग, उत्तर आस्ट्रेलिया के अछोर रेगिस्तान
या चौदह सौ बयान्नवे ईसवी सदी के पहले के अमेरिका
या फिर मुआन जोदारो, पेरू,
या कहीं से भी नहीं
या यहीं कहीं से
खूंटी या सरगुजा के उस किसी गाँव से जहां से उजाड़ दिया गया है उसका छोटा-सा घास-पात, काठ-मिट्टी से बना घर
या फिर मेरे ही गाँव के आसपास खांडा, पोंडी, छिलपा, बिजौण्डी, सोनटोला के उजाड़ दिए गए जंगलों से ?
एक सौ नब्बे किलो का असबाब सिर पर उठाए
बैतूल के रेलवे प्लेटफार्म पर चल रही है इक्कीस साल की सांवली दुर्गा....
'नज़र रखना इस पर, चम्पत न हो जाए कहीं लेकर मेरा करोड़ों का सारा माल ये चोट्टी ...''
पीछे से चीखता है मोंटेक सिंह आलूवाला !....
कोयलावाला ...!
मालामाल मालवाला......!
दुर्गा के पीछे-पीछे चलता है
बाज जैसी आँख गडाए
एक हाथ में तुपक और दूसरे में गिट्टी-पत्थर और लाल मिरिच का पाउडर रक्खे
पुलिस का कमांडो या सलवा जुडूम का फर्जी एस. पी.
जिसे दिया जाएगा गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के राजपथ पर शौर्य-सम्मान ,
बहादुरी का मेडल ...!
बस आज से चार रोज़ बाद
हर गली, हर शहर , हर गाँव में लगी होंगी दुर्गा की मूर्तियाँ,
बज रहे होंगे घंटा-घड़ियाल, नाच रहे होंगे मदमत्त नौजवान डीजे की ताल पर
'ऊह ला ला ...ऊह ला ला ...तू है मेरी फैंटेसी ....!'
हर रिक्शा, हर मोटरकार के पिछवाड़े लिखा होगा
'जै माता दी ...'
ठीक इन्हीं पलों में
हरियाणा के कैथल
या राजधानी के धौलाकुआं या गुडगाँव में
किसी बी एम् डब्ल्यू ,एस्कोडा या सफारी की बंद अंधी कांच की खिड़कियों के भीतर
चीख कर बेहोश हो चुकी होगी दुर्गा
फिलहाल एक सौ नब्बे किलो का असबाब सिर पर उठाए
प्लेटफार्म पर चल रही है इक्कीस साल की सांवली दुर्गा....
और उसके पीछे चल रहा है
बाज जैसी आँख गडाए आलूवाला ...!
(अभी-अभी प्रिय अफलातून जी के वाल पर देखा संदीप नाईक की पोस्ट 'दुर्गा', जो कुली है, बैतूल के रेलवे प्लेटफार्म पर, का चित्र. उसी की प्रतिक्रया में ये कुछ शब्द...)
एक सौ नब्बे किलो का असबाब सिर पर उठाए
प्लेटफार्म पर चल रही है इक्कीस साल की सांवली दुर्गा....
दुर्गा
क्या किसी भील या संथाल, कोल, बैगा या पनिका की बेटी है ?
क्या उसके मोटे सुन्दर होठों, चपटी मासूम नाक
और समूची सभ्यता को संदेह की नज़र से देखती भेदती आँखों की मुक्ति के लिए ही
अफ्रीका में लड़े थे नेल्सन मंडेला और बैरिस्टर मोहनदास करमचंद
क्या इसी दुर्गा के लिए गाया था जूनियर मार्टिन लूथर किंग ने :
'हम होंगे कामयाब ....होंगे कामयाब एक दिन ...'
'वेंसेरेमास......वेंसेरेमास ....' कहते हुए बोलीविया -कोलंबिया के घने जंगलों में मारा गया था
चे गुवेरा ...
कहाँ से आये होंगे दुर्गा के पितर और पूर्वज
छोटा नागपुर, झाबुआ, पलामू, उड़ीसा, आन्ध्र
या सोवेतो, जोहेनेसबर्ग, उत्तर आस्ट्रेलिया के अछोर रेगिस्तान
या चौदह सौ बयान्नवे ईसवी सदी के पहले के अमेरिका
या फिर मुआन जोदारो, पेरू,
या कहीं से भी नहीं
या यहीं कहीं से
खूंटी या सरगुजा के उस किसी गाँव से जहां से उजाड़ दिया गया है उसका छोटा-सा घास-पात, काठ-मिट्टी से बना घर
या फिर मेरे ही गाँव के आसपास खांडा, पोंडी, छिलपा, बिजौण्डी, सोनटोला के उजाड़ दिए गए जंगलों से ?
एक सौ नब्बे किलो का असबाब सिर पर उठाए
बैतूल के रेलवे प्लेटफार्म पर चल रही है इक्कीस साल की सांवली दुर्गा....
'नज़र रखना इस पर, चम्पत न हो जाए कहीं लेकर मेरा करोड़ों का सारा माल ये चोट्टी ...''
पीछे से चीखता है मोंटेक सिंह आलूवाला !....
कोयलावाला ...!
मालामाल मालवाला......!
दुर्गा के पीछे-पीछे चलता है
बाज जैसी आँख गडाए
एक हाथ में तुपक और दूसरे में गिट्टी-पत्थर और लाल मिरिच का पाउडर रक्खे
पुलिस का कमांडो या सलवा जुडूम का फर्जी एस. पी.
जिसे दिया जाएगा गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के राजपथ पर शौर्य-सम्मान ,
बहादुरी का मेडल ...!
बस आज से चार रोज़ बाद
हर गली, हर शहर , हर गाँव में लगी होंगी दुर्गा की मूर्तियाँ,
बज रहे होंगे घंटा-घड़ियाल, नाच रहे होंगे मदमत्त नौजवान डीजे की ताल पर
'ऊह ला ला ...ऊह ला ला ...तू है मेरी फैंटेसी ....!'
हर रिक्शा, हर मोटरकार के पिछवाड़े लिखा होगा
'जै माता दी ...'
ठीक इन्हीं पलों में
हरियाणा के कैथल
या राजधानी के धौलाकुआं या गुडगाँव में
किसी बी एम् डब्ल्यू ,एस्कोडा या सफारी की बंद अंधी कांच की खिड़कियों के भीतर
चीख कर बेहोश हो चुकी होगी दुर्गा
फिलहाल एक सौ नब्बे किलो का असबाब सिर पर उठाए
प्लेटफार्म पर चल रही है इक्कीस साल की सांवली दुर्गा....
और उसके पीछे चल रहा है
बाज जैसी आँख गडाए आलूवाला ...!
Uday Prakash Sandip Naik
ji ....लेकिन यह 'दुर्गा' ..जो कुली बना डाली गयी है, सत्ता-दौलतखोरों के
लालच और हिंसा के राज में, उसका सम्मान है. ..और आपका भी, जिसकी आँखें उस
'दुर्गा' का दर्शन कर रही हैं ..और हम सबको करा रही हैं....! सलाम आपको और
अफलातून भाई को ...और सभी दोस्तों को...(आपको शायद याद हो, देवास में
'एकलव्य' में ..कई साल पहले एक बार मैं अपना कैमरा भूल आया था...और बदहवासी
में २-३ घंटे बाद लौट कर आया था और उसे सुरक्षित पाकर मेरी साँसें लौट आयी
थीं...ग्रेट !!)
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