आज तों गजब हो गया बुला लिया उन्होने फोन करके और फ़िर पुरी दोपहरी निकल गई. हीरा थी हीरा...........वो सात-आठ भाई बहनों में सबसे छोटी और लाडली, पढ़ी लिखी तों खास नहीं थी पर उस जमाने में मेट्रिक पास हुई तों सरकार ने बुलाकर नौकरी दे दी उसे..........बाद में पढाई की एम ए तक पुरे लक्ष्मीपुरे में पहली औरत थी एम ए करने वाली.....पर किस्मत देखो अपना तों जीवन यूँही निकल गया उसका , नौकरी, फ़िर फूटबाल खेलने भाई का परिवार, छोटा बच्ची, बड़े विधुर भाई, मुम्बई और पूना में रह रहे भाई बहनों के बच्चों को यही इसी लक्ष्मीपुरे में पालती रही..... शादी की तों कोई उम्र होती है...... निकलती गई, जिनगी भर वो पास के एक गाँव में आती जाती रही, नजर के टेम्पो पर उसकी उम्र का आधा हिस्सा निकल गया.......नजर टेम्पो वाले का भगवान भला करे.......यही मोहसिन पुरे में रहता था उसके वालिद तों कुछ और काम धंधा करते थे पर नजर ने दो टेम्पो डाल दिए और अल्लाह कसम चल निकले.....हाँ तों वो कह रही थी कि उसने शादी ब्याह किया नहीं, गाँव से जब शहर में आई इसी देवास में, तों जिस स्कूल में बदली हुई थी वहाँ एक खुर्राट माताजी थी जो साधू संतों का भेष ओढकर बैठती थी उसने इसे हेड मास्टरनी का चार्ज नहीं दिया. बस एक कुर्सी और दो-दो हेड मास्टरनी........ पुरे सुतार बाखल के लोग ये तमाशा रोज देखते, पर एक दिन मर गई माताजी, बस फ़िर क्या बन गई वो हेड मास्टरनी. हाँ एक बड़ी मजेदार बात थी उसने पचास में शादी की थी और उस जमाने के अखबारों में खूब छपा था ये किस्सा. उसका दूल्हा कोई नहीं एक साधक था, वो क्या रजनीश का साधक.......खूब किताबें थी बाबू उसके घर में अकेला था दोनों बहनों की शादी हो गई थी और ये भी था तों मास्टर पर एकदम अकेला रहता था और शाम को उस रजनीश के फोटू के सामने अगरबत्ती लगाकर नाचता था और फ़िर देवास में आर्य समाज के पास भी ऐसे ही कुछ लोंग रहते थे जो ऐसा ही नाच करते थे ये अपने आप को साधना करने वाले बताते थे.....कोई कहता कि इसने प्रेम विवाह किया था उस मास्टर से, पर चेहरा देखकर तों लगा नहीं कि ये ऐसा कर सकती थी. शादी के बाद ये उसके पास रहने चली गई, जल्दी जल्दी में एक मकान बनवाया वहाँ दुर्गाबाग में..पर किस्मत देखो बाबू...... बुढापे की शादी कोई फलती है क्या ??? मर गया वो खसम और फ़िर ये अकेली रह गई ननद ने और उसके बच्चों ने कोर्ट-कचहरी में फंसा दिया और धमकी देकर इसे घर से निकाल दिया..... फ़िर आ गई पीहर में जहां अब जिम्मेदारियां थी और कुछ नहीं......बस घिसती रही अपने आप को लथडते हुए जैसे तैसे नौकरी की और यही से राजबाड़े से रिटायर्ड हो गई, तब से घर में बंद है. इधर कुछ बाहर जाने लगी है- इंदौर, पूना, मुम्बई......अब खसम की पेंशन और उसकी खुद की पेंशन मिलती है...... आज तों रूपया है पैसा है पर कंजूस हो गई है. भाई भी एक-एक करके मर गये, बस एक बचा है.......वो आ जाता है दो तीन साल में झाँक जाता है पर उसके मन में भी काला चोर है- उसे हिस्सा चाहिए इस बड़े मकान का और बाकी भाईयों के बच्चे भी चक्कर लगाते है, इसलिए पर जब तक ये बैठी है ना तब तक किसी में हिम्मत नहीं, क्योकि किया धरा तों इसका है सब.....आज ही देखा मैंने उसे जा रही थी- अपनी भांजियों के साथ, दो की शादी नहीं हुई अभी तक....... बुढा गई है एकदम दोनों की दोनों, बहुत नखरे किये इन भांजियों ने जवानी में...... छोरे तों मिले थे पर....मुझे लगा कि अब फ़िर एक नई कहानी निकलने वाली है और मै धीरे से घने काले होते बादलों को देखकर उठ गया. चाय का प्याला कब ठंडा हो गया था मुझे नहीं पता पर कमरे में भाप के बादल तैर रहे थे और मुझे लगा कि ये भाप के बादल है या उन आंसूओं के जो कभी बह नहीं पाए......(देवास के मोहल्ले-3)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
Comments