भाई अनुज लुगुन हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि है और बेहद संभावनाशील भी. उनकी कवितायें एक नया मुहावरा और व्यापक संसार लेकर आती है जो हमें अपने आदिम जीवन से ना मात्र जोडती है बल्कि समाज में हो रहे बदलावों से इस पुरे सन्दर्भ पर क्या असर पड रहा है इसकी भी निष्पक्ष परीक्षा करती है. निश्चित ही यह नयापन, नया गढना, नया मुहावरा और नया विचार एक जटिल प्रक्रिया है जिसे स्वीकारने में अभी भी हिन्दी जगत में कई प्रकार की दिक्कतें है. खासकरके हिन्दी की परम्परागत कविता के फलक पर कविता को तौलने की प्रवृति अभी बहुत खुली नहीं है. पर समय को लगभग चुनौती देते हुए अनुज काल से होड ले रहे है और सारे दबावों के बावजूद अपनी सशक्त उपस्थिति से हम सबको चमत्कृत कर रहे है इन दिनों. बधाई भाई अनुज.....आपके लिए प्रस्तुत है अनुज लुगुन की एक नई कविता...
मैं घायल शिकारी हूँ
मेरे साथी मारे जा चुके हैं
हमने छापामारी की थी
जब हमारी फसलों पर जानवरों ने धावा बोला था
हमने कारवाई की उनके खिलाफ
जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि
फसल हमारी है और हमने ही उसे जोत – कोड कर उपजाया है
हमने उन्हें बताया कि
कैसे मुश्किल होता है बंजर जमीन को उपजाऊ बनाना
किसी बीज को अंकुरित करने मे कितना खून जलता है
हमने हाथ जोडे ,गुहार की
लेकिन वे अपनी जिद पर अडे रहे कि
फसल उनकी है,
फसल जिस जमीन पर खडी है वह उनकी है
और हमें उनकी दया पर रहना चाहिये
हमें गुरिल्ले और छापामार तरीके खूब आते हैं
लेकिन हमने पहले गीत गाये
माँदर और नगाडे बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो
फसल की जडे हमारी रगों को पहचानती हैं ,
फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि
वह उनकी मति शुद्ध कर दे
उन्हें बताये कि फसलें खून से सिंचित हैं ,
और जब हम उनकी सबसे बडी अदालत में पहुँचे
तब तक हमारी फसलें रौंदी जा चुकी थीं
मेरा बेटा जिसका व्याह पिछ्ले ही पूरणिमा को हुआ था
वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिये निकल पडा
यह टूट्ता हुआ समय है
पुरखों की आत्मायें ,देवताओं की शक्ति छीन होती जा रही हैं
हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं
सेंदेरा से पहले हमने
शिकारी देवता का आह्वान किया था लेकिन
हम पर काली छायाऐं हावी रहीं
हमारे साथी शहीद होते गये
मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा
फसलों को देख रहा हूँ
फसलें रौन्दी जा चुकी हैं
मेरे बदन से लहू रिस रहा है
रात होने को है और
मेरे बच्चे , मेरी औरत
घर पर मेरा इंतजार कर रही हैं
मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ
अपने भूखे बच्चे और औरतों को देखता हूँ
पर मुझे अफसोस नहीं होता
मुझे विश्वास है कि
वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन जरुर पहुंचेंगे
मैं उस फसल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ
जिसकी जडों में हमारी जडें हैं
उसकी टहनियों में लोटती पंछियों को घोंसला लौटाना चाहता हूँ
जिनके तिंनकों में हमारा घर है
उस धरती के लिये बलिदान चाहता हूँ
जिसने अपनी देह पर पेडों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की
नदियों को कभी दुखी नहीं किया
और जिसने हमें सिखाया कि
गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के
किसी के दुश्मन नहीं होते
मैं एक बूढा शिकारी
घायल और आहत
लेकिन हौसला मेरी मुठिट्यों मे है और
उम्मीद हर हमले में
मैं एक आखिरी गीत अपनी धरती के लिये गाना चाहता हूँ ..
-अनुज लुगुन 18/11/12
मैं घायल शिकारी हूँ
मेरे साथी मारे जा चुके हैं
हमने छापामारी की थी
जब हमारी फसलों पर जानवरों ने धावा बोला था
हमने कारवाई की उनके खिलाफ
जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि
फसल हमारी है और हमने ही उसे जोत – कोड कर उपजाया है
हमने उन्हें बताया कि
कैसे मुश्किल होता है बंजर जमीन को उपजाऊ बनाना
किसी बीज को अंकुरित करने मे कितना खून जलता है
हमने हाथ जोडे ,गुहार की
लेकिन वे अपनी जिद पर अडे रहे कि
फसल उनकी है,
फसल जिस जमीन पर खडी है वह उनकी है
और हमें उनकी दया पर रहना चाहिये
हमें गुरिल्ले और छापामार तरीके खूब आते हैं
लेकिन हमने पहले गीत गाये
माँदर और नगाडे बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो
फसल की जडे हमारी रगों को पहचानती हैं ,
फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि
वह उनकी मति शुद्ध कर दे
उन्हें बताये कि फसलें खून से सिंचित हैं ,
और जब हम उनकी सबसे बडी अदालत में पहुँचे
तब तक हमारी फसलें रौंदी जा चुकी थीं
मेरा बेटा जिसका व्याह पिछ्ले ही पूरणिमा को हुआ था
वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिये निकल पडा
यह टूट्ता हुआ समय है
पुरखों की आत्मायें ,देवताओं की शक्ति छीन होती जा रही हैं
हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं
सेंदेरा से पहले हमने
शिकारी देवता का आह्वान किया था लेकिन
हम पर काली छायाऐं हावी रहीं
हमारे साथी शहीद होते गये
मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा
फसलों को देख रहा हूँ
फसलें रौन्दी जा चुकी हैं
मेरे बदन से लहू रिस रहा है
रात होने को है और
मेरे बच्चे , मेरी औरत
घर पर मेरा इंतजार कर रही हैं
मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ
अपने भूखे बच्चे और औरतों को देखता हूँ
पर मुझे अफसोस नहीं होता
मुझे विश्वास है कि
वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन जरुर पहुंचेंगे
मैं उस फसल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ
जिसकी जडों में हमारी जडें हैं
उसकी टहनियों में लोटती पंछियों को घोंसला लौटाना चाहता हूँ
जिनके तिंनकों में हमारा घर है
उस धरती के लिये बलिदान चाहता हूँ
जिसने अपनी देह पर पेडों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की
नदियों को कभी दुखी नहीं किया
और जिसने हमें सिखाया कि
गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के
किसी के दुश्मन नहीं होते
मैं एक बूढा शिकारी
घायल और आहत
लेकिन हौसला मेरी मुठिट्यों मे है और
उम्मीद हर हमले में
मैं एक आखिरी गीत अपनी धरती के लिये गाना चाहता हूँ ..
-अनुज लुगुन 18/11/12
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