बात मजाक की नहीं है बल्कि यह है कि इस दौर में स्त्री शिक्षा और सशक्तिकरण के बावजूद भी आज तक हम करवा चौथ, छठ, हरितालिकातीज जैसे त्यौहार जो घोर अत्याचारी किस्म के है- महिलाओं के लिए, मना रहे है. आज एक प्रिय मित्र की पत्नी से बातें हुई जो इस समय गर्भवती है और लगभग आठवें माह में है, आज वे भी उपवास पर है जब हम सबने उनसे आग्रह किया कि वे कुछ तो खा लें या फलों का रस पी लें तों उन्होने बहुत श्रद्धा से मना कर दिया उन्होने अपने परिवार के कुलगुरु की बातों को उद्धत करते हुए कहा कि हिन्दू संस्कारों के अनुरूप पेट में पल रहे बच्चे पर माँ के संस्कार बहुत महत्वपूर्ण होते है यदि होने वाली संतान कन्या है तो वह यह महान संस्कृति सीखेगी और अगर यह बालक है तों वह सीखेगा कि स्त्री कितनी महान होती है जो पति को परमेश्वर मानती है. बहुत समझाने के बाद भी वो मान नहीं रही है और अपना पत्नी धर्म निभा रही है. फ़िर मैंने गंभीरता से सोचा कि महिलायें और एक गर्भवती स्त्री कितने उपवास सप्ताह में करती है और खाती पीती नहीं है नतीजा सामने है गंभीर कुपोषण और शिशु मृत्यु और माताओं की जचकी के दौरान मृत्यु. अफसोस तो तब होता है कि पितृ सत्ता में कुलगुरु भी भी पुरुष ही है, और ज्ञान की सारी नदियाँ भी वही से आती है जो महिलाओं को अन्ततोगत्वा दोयम दर्जे का नागरिक बनाती है. यह बहुत ही दुखद और अन्यायपूर्ण व्यवस्था है. इस तरह के तीज-त्यौहार और लोक परम्पराओं को नए नजरिये से सोचने बिचारने की जरुरत है, मैंने खुद भी सुबह इसी व्यवस्था का मजाक उडाया था पर लगता है बहुत गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिर क्यों स्त्रियाँ, जो हमेशा से साफ्ट टारगेट रहती है, इस का निशाना बारम्बार बनती रहे??? मीडिया भी इस तरह के त्योहारों को बहुत महिमा मंडित करता है एक दिन पहले से बाजार की रौनक, खरीदी, साक्षात्कार, और फ़िर इस तरह की कथाएं जो सिर्फ ढपोल शंखी ब्राह्मणों द्वारा अपने शुद्ध व्यवसाय को बढाने के लिए लिखी है, को प्रचारित करता है. दूसरा हिन्दी फिल्मों में इस तरह के प्रसंग और गाने डालकर अंध भक्ति, निष्ठा और विश्वास बढाने के दृश्य डाले जाते है. यह सब बेहद अमानवीय है. अब सही समय है जब इस पर सोचा जाये और ठोस कदम बढाए जाये.......या उलटा करें सारे देश के लोग सिवाय बच्चों के इन तीज त्योहारों पर भूखे रहे ताकि अन्न की बचत हो और जो इस दिन की बचत हो उसे गरीबों में बाँट दिया जाये.
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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