अकेला ही था वो उस भीड़ में घाट पर......बाकी लोग अपने काम कर रहे थे, दिए जलाकर पानी में बहा रहे थे, अगरबत्ती जलाकर माँ नर्मदा की आरती बुडबुडा रहे थे, सुहागिनें अपने सर पर एक लंबा सा पल्लू खींचकर फूल पत्ती बहा रही थी, कुछ लडके और लडकियां एक कोने में प्रेम कर रहे थे, एक तरफ बूढी विधवा महिलायें भजन गाते हुए अपने परिजनों को घर से दूर रहकर सुख दे रही थी, पानी अपने निर्बाध वेग से बह रहा था नर्मदा का .........एक दूर कोने में वो जोर- जोर से बडबडा रहा था हाथों में ढोल, फटे कपडे, चेहरे पर बेतरतीब सी बढ़ी हुई दाढी, आँखे धंसी हुई, सर के बाल जो सदियों से सूखे हुए थे, शर्ट जो किसी पंद्रहवीं शताब्दी का वस्त्र होने का सबुत था, आवाज ऐसी थी जो लगता था कि किसी दूर ग्रह के किनारे से गूंजते हुए आई है जो पूरी मशक्कत के बाद भी निकल नहीं पाती थी. कह रहा था कि समाज में सबके लिए भोजन पानी की व्यवस्था है, कन्या पूजा है, लड़कों को ब्राहमण बनाकर भोजन दिया जा सकता है पर एक अकेले आदमी के लिए कही कोई व्यवस्था नहीं, उम्र निकल गई अकेले रहते हुए, एकाकी जीवन की सारी त्रासदियाँ भुगत ली पर कही कोई ठौर ठिकाना नहीं....और तों और मरने पर अकेले आदमी की लाश को भी लकडियों के गठ्ठे जला नहीं पाते...याद आया सही कह रहा था वो ...........देवास में मेरे सामने रहने वाले प्रभात के चाचा की मृत्यु के बाद भी वो दो दिन तक जल नहीं पाए थे और अंत में जब अस्थियां चुनी गई तों अधजले शरीर के हिस्से साथ आ गये थे....पर यह बुजुर्ग आदमी यह सब आज अचानक क्यों कह रहा है जब मै यहाँ शांति की तलाश में आया हूँ.........अपने आप से भागकर ........अब जब शाम का आसमान भी एक गहरी खामोशी के साथ उदास हो गया है, पानी का वेग स्थिर है, दिए जलते हुए बह रहे है, फूल पत्तियाँ कह रही है आखिर कुछ देर बहाने के बाद सड ही जाना है..... बस बह ले....पता नहीं यह सब क्या हो रहा है............वह आदमी फ़िर अपने ढोल की आवाज तेज कर रहा है ....एक भजन चारों ओर गूंजने लगा है ........और सारे लोग जो घाट पर मौजूद है एक अर्ध चैतन्य अवस्था में झूमने लगे है ..........यह माँ नर्मदा की जयकारे का वक्त है नर्मदे हर........हर........हर....( नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा 14)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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