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महेश वर्मा की नई कविताएं (सबद से साभार)




पुराना दिन

तुम वहाँ कैसे हो गुज़रे हुए दिन और साल?
यह पूछते हुए पुरानी एलबम के भुरभुरे पन्ने नहीं पलट रहा हूँ

तुम्हारी आवाज़ आज के नए घर में गूंजती है
और हमारी आज की भाषा को बदल देती है

एक समकालीन वाक्य उतना भी तो समकालीन नहीं है
वह पुरानी लय का विस्तार है

और इतिहास की शिराओं का हमारी ओर खुलता घाव
वह तुम्हारे विचारों का निष्कर्ष है हमारी आज की मौलिकता
पुराने आंसुओं का नमक आज की हंसी का सौंदर्य

मरा नहीं है वह कोई भी पुराना दिन
राख, धूल और कुहासे के नीचे वह प्रतीक्षा की धडकन है
गवाही के दिन वह उठ खड़ा होगा
और खिलाफ गवाही के दस्तावेज के नीचे दस्तखत करेगा.
****

बाहर

...फिर क्या होता है कि तुम प्रतीक्षा के भ्रामक विचार से धीरे धीरे दूर होते जाते हो . यह दूर जाना इतने धीमे तुम्हारे अवचेतन में घटित होता है कि दांतों के क्षरण और त्वचा के ह्रास की तरह इसका पता ही नहीं चलता. किसी एक रोज थोड़ा दूर हटकर तुम संदेह करते हो कि वाकई तुम्हें प्रतीक्षा थी भी या नहीं . फिर होता यह है कि तुम प्रेम की घटना और अंततः प्रेम के विचार से ही एक उपहासात्मक दूरी बनाना चाहते हो अपने वीतराग में इस तरह कि कोई प्रेम नहीं था, प्रतीक्षा भी नहीं .

यहाँ ज़रा रूककर इस सुन्दर संतुलन को देखें कि ये तुम्हारे विचार नहीं थे , एक पुकार थी तुम्हारी ओर से अपने आप को यातना देती हुई कि प्रेम तुम्हें पुकारता हूँ इस तरह कि आज कह रहा हूँ कि तुम नहीं थे. धूल भरे मैदानों की दूरियों में अस्त होती तुम्हारी इस पुकार की कोई उदास प्रतिध्वनि गूंजती भी हो तो तुम्हारी आत्मा के एकांत में ही सुनाई देगी वह प्रतिध्वनि.

तुम्हारी इच्छा से बाहर थी तुम्हारी प्रतीक्षा .

तुम्हारी प्रतीक्षा से बाहर तुम्हारा प्रेम.
****

इतिवृत्त

घोड़े की पीठ पर सो लेते थे बाबा
एक बार ऐसे ही पार कर गए थे
पारिवारिक किम्वदंती की नदी
घोड़े की पीठ पर सोते-सोते

पुजारी पिता भोर में नहीं उठ पाते थे जिस रोज
देवी के स्वप्न से उठते थे हडबडाए
देवी ने लात मारकर जगाया कहते फिर
उस पदाघात को प्रणाम करते अमूर्त दिशा में

चाचा को बस में बैठते ही नींद आ जाती थी
चौंक-चौंक उठते थे सपने की दुर्घटना में
थोड़ी देर में पहचानते थे अपना आसपास

माँ गुडीमुडी होकर सो रही है रसोई के ही फर्श पर
कभी सोती है पूजाघर में

भाई सपने में अक्सर डांटता है किसी को
पहले कहाँ सोता था मेरे पेट पर घुटना दिए बगैर

कहानी या अपने रुदन के विस्तार में ही सोता है मेरा बेटा

अधूरे कामों के टुकड़ा वाक्यों में डूब रही है पत्नी
अपनी थकन में सोने से पहले

ऐसे में क्या कहा जा सकता है अपने सोने जागने के बारे में
****

चेहरा

पता नहीं तुम कितने अंतिम संस्कारों में शामिल हुए
कितनी लाशें देखीं लेकिन फिर जोर देता हूँ इसपर
कि मृत्यु इंसान का चेहरा अप्रतिम रूप से बदल देती है

यह मुखमुद्रा तुमने इसके जीते जी कभी नहीं देखी थी

यह अपने मन का रहस्य लेकर जा रहा है और निश्चय ही नहीं लौटेगा

पता नहीं क्या करता इसका अगर कुछ और दिन रुकता कि
कौन-सा स्पर्श उसकी त्वचा में सिहरन भर देता था और उसकी सांसों में आग
कौन सी याद उसकी आत्मा को भर देती थी खालीपन से
किन कंदराओं से आता था उसका वीतराग मौन और उसकी धूल भरी आवाज़

यह उसका विनोद है, उसका असमंजस
उसकी पीड़ा है और उसका पापबोध
जो उस रहस्य से जुडा है निश्चय ही जिसे लेकर जा रहा है
या उसका क्षमाभाव है

और बदला न ले पाने को ऐंठती उसकी आत्मा की प्रतिछवि है उसके चेहरे पर
जो उसे बनाती है अभेद्य और अनिर्वचनीय

एक प्रेमनिवेदन जो किया नहीं गया
एक हत्यारी इच्छा , हिंसात्मक वासना
मौक़ा, चूकी दयालुताएं और प्रतिउत्तर के वाक्य

ये उसकी आत्मा की बेचैन तहों में सोते थे फिलवक्त
अब इन्हें एक अँधेरे बक्से में रख दिया जाएगा

प्रार्थना का कोई भी सफ़ेद फूल,
करुणा का कोई भी वाक्य इन तक नहीं पहुँच पायेगा

और तुम्हें यह तो मानना ही होगा कि
तुम्हारी काव्यात्मक उदासी से बड़ी चीज़ थी
उसके मन का रहस्य

बाकी संसार आज उससे छोटा ही रहेगा.
****

[ महेश वर्मा हिंदी के चर्चित युवा कवि हैं। सबद पर इनकी कविताएं इससे पहले यहां देखें।
कविताओं के साथ दी गई तस्वीर गूगल से। ]

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