अपने लोगो से बात करना बेहद मुश्किल होता है जैसे उन्हें चिट्ठी लिखना जैसे उनसे यह पूछना कि कैसे हो, यह और भी मुश्किल तब हो जाता हो जब हम खुद संतापो से घिरे हो और बेहद त्रासद हो आसपास, कही आशा की किरण नजर ना आ रही हो, दूर राहों पर पेडो की छाँह तो दूर मृगछाया भी नजर नहीं आती हो. अपने लोगो का अपना एक संतुलित समीकरण होता है जिसके बराबर एक साथ कई पहलू होते है और अक्सर हम इन सबको समग्र रूप से संवारने में उलझ जाते है बस यही से सारा क्रम बिगडाना शुरू होता है और एक रपटे पर फिसलते हुए जिंदगी दो कौड़ी की रह जाती है! बस यही आइना है यही सच है और यही अपने हमसे इतनी दूर चले जाते है कि फ़िर लौट कर नहीं आते शायद लौटना तो हमें भी है, हम उस खुसरो को याद करते है जो कहता था "चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुदेस"(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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