लगता है कि जीवन एक बेचैनी सी है और यह सिर्फ तभी महसूस की जा सकती है जब जीवन में एक ठहराव आ जाता है सारे रास्ते बंद हो जाते है सिर्फ खाना और सोना, ना कुछ करे थोड़ा सा हासिल कर लेना, चुनौती और पनौती का ना होना, अपने आप पर शक होने लगे, रोज आईना देखने में डर लगे और पढने लिखने से भी मन उब जाए, समय की घोर कमी के बावजूद अपना समय नष्ट कर अपने आप को नष्ट करने के नित नए बहाने और प्रकल्प खोजे, शाम होते ही साँसे घनघना उठे, दोस्तों से बातचीत में अपना रोना धोना शुरू कर दे, देर रात तक जाग कर रचनात्मकता के बजाय क्षरण के पलों को जीते रहे ये अगर जीवन है तो मंजूर नहीं, लानत है ऐसे जीवन और परिस्थितियों पर और उन सब पर जो घेर कर हमें ऐसी कंदराओ में फेंक देते है कि लो आजाद हो तुम(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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