एक ही तरह का काम और वो भी ढंग से नहीं हो पाता किन्ही दूसरों के वजह से, साथ एक ही शहर के मरे हुए लोग जो जिंदगी में कोई परिवर्तन नहीं चाहते, अपने ढर्रे पर खुश और खुद से नाराज, अस्त-व्यस्त, खस्ताहाल और उद्देश्य और लक्ष्य का जीवन में कोई मतलब नहीं, ऐसे में एक रचनात्मक आदमी की सारी ऊर्जा भी लग जाए तो भी कुछ नहीं हो सकता, ऊपर से जिम्मेदारी का बोझ लिए बैठे जिम्मेदार प्रशासनिक लोग बेहद असंवेदनशील और सिर्फ रूपया कमाना जिनका अंतिम उद्देश्य है उनसे क्या अपेक्षा रखे कि वो कुछ करेंगे.सिर्फ ढो रहे है जीवन, बोझ, तनाव, दंश, पीड़ा, उद्दाम वेग से दौडती जिंदगी कहा क्या खो रही है नहीं पता...बस मौत का इंतज़ार है बेसब्री से(मन की गांठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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