वरुण हमारे समय के अत्यंत ही संवेदनशील और प्रतिभाशाली सिनेकार, ऑब्जर्वर हैं। उन्होंने एक नया ब्लॉग शुरू किया है, द सिंगल स्क्रीन। यह उसकी पहली पोस्ट है। उन्होंने इसका शीर्षक दिया है, पेड़ और कुआं : मॉडरेटर
बचपन में एक बार जोश चढ़ा था दुनिया को समझने का। खास कर के समय को समझने का। आज की सुबह कहां गयी? घड़ी सिर्फ अपने होने का सुबूत है या समय के होने का? अगर एक सेकंड कभी खुद से ही आधा हो जाए तो हमें कैसे पता चलेगा? समय में आगे या पीछे क्यों नहीं जा सकते? तब शायद ऐसे नहीं देखा लेकिन अब कह सकता हूं कि वो पहली मार थी मेरे अंदर बंद समय की, मेरे बाहर तैर रहे समय से जुड़ने के लिए। एक तरह से कहें तो मेरे जीवन की पहली आध्यात्मिक कोशिश।
14 साल की उम्र में जब स्कूल की physics अपने आस-पास की दुनिया से थोड़ी जुड़ने लगी थी, तब स्टीफन हॉकिंग की A brief history of time पढ़ना शुरू किया। साथ में टीवी पर डिस्कवरी चैनल चलता रहता था और लगता था कि बस आज नहीं तो कल दुनिया के रहस्य समझ आ ही जाएंगे।
फिर थोड़े बड़े हुए और कॉलेज गये, तो कहीं से लड़कपन-वाला मिर्जा गालिब का शौक लग गया। उनको पढ़ के भी एक बार फिर लगा कि दुनिया का कुछ हिस्सा समझ लेंगे। गालिब का “न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता, तो खुदा होता… डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता” जब philosopher-mathematician रेने डेकार्ट्स के “I think, therefore I am” से जा मिला, तो कुछ गांठें खुलती सी दिखीं। उसके बाद बादल सरकार, सैमुएल बैकेट, मानव कॉल और दुनिया भर के कई रंग के सिनेमा ने भी सवालों की लिस्ट लंबी की। किसी ने कहा हम सब जवाब हैं अपने अपने सवाल की खोज में, किसी ने कहा zero-sum game है, किसी ने कहा यादों का कुल-जमा, किसी ने कहा सपना, और किसी ने वापस स्टीफन हॉकिंग की तरफ मोड़ दिया। लेकिन अब सवाल सिर्फ physics की किताबों से झूलता नहीं दिख रहा था। अब उसमें biology, history, chemistry, psychology, literature, myth, और rhyme (या music या broadly कहें तो arts) का भी बराबर हिस्सा था।
इस बीच जो सबसे असरदायक चीजें देखीं और पढ़ीं, वो थी चार्ली कॉफमैन की लिखी फिल्में और उदय प्रकाश की कहानी-कविताएं। कॉफमैन ने Eternal Sunshine of the Spotless Mind में सिर्फ memory से खेलकर time-machine जैसा scenario पेश किया, एक तरह की emotional immortality की feeling… और Synecdoche NewYork में तो ‘सब माया है’ के जटिल सिद्धांत को बच्चों की कहानी जितनी simplicity से हमारे बीच छोड़ दिया। लेकिन धीरे-धीरे यह समझ आने लगा था कि जवाब गुरु नहीं मिलेगा, दौड़ लो जितना दौड़ना है। लेकिन इस realization ने परेशान करने की बजाय थोड़ी शांति दी। ऐसा लगा कि होमवर्क तो पूरा नहीं हुआ था, पर अगले दिन स्कूल की छुट्टी निकली। पर एक चीज होना बाकी था, इस समझने के चक्र की एक inevitable घटना। एक कड़ी जो आज नहीं तो कल आने वाली थी… और ये ऐसी कड़ी थी, जो किसी रास्ते से आती हुई दिखती नहीं, बस प्रकट होती है। सामने आकर खड़ी होती है और आपको उससे deal करना पड़ता है।
दो महीने पहले पत्नी के एक बहुत ही नजदीकी cousin की असमय मौत हुई। सारे सवाल एक नये सिरे से फिर उठ खड़े हुए। वो कहां गया? उसके हिस्से का समय कहां गया? उसके होने का क्या मतलब था, और जाने का क्या मतलब है? हमसे 1000 किलोमीटर दूर रहता था, साल में 2 बार मिलते थे… तो क्या ये मान लेना ज्यादा अच्छा नहीं है कि वो वहीं है, अपने शहर में, जिंदा? अगर साल के 340 दिन वैसे भी वो हमारी याददाश्त में ही रहता था, तो अब क्यों नहीं रह सकता? अब याद के साफ पानी में स्याही कैसे मिल गयी? भरम क्या है और सच क्या?
कई तरह से जवाब खोजने की लड़ाई फिर शुरू हुई। कोशिश सतह पर तो आध्यात्मिक थी लेकिन इस बार असल में selfish… और इस बार सवाल एकदम pointed था – मौत क्या है? एक बार फिर बचपन से जुटाये हुए बिखरे-ज्ञान को जोड़ने का मन हुआ। इस नयी यात्रा में कुछ बहुत मुकम्मल चाबियां मिलीं। पहली थी उदय प्रकाश का ‘आत्मकथ्य’ (‘और अंत में प्रार्थना’ से), जिसमें वो बताते हैं कि वो कभी मौत को humorize क्यूं नहीं कर सकते :
और यह भी कि हर सर्जनात्मकता, कलाएं, संगीत, नृत्य, विज्ञान आदि एक स्तर पर इसी अंतिम परिणति के विरुद्ध मनुष्य की जीवंत चेष्टाएं हैं। यानी सृजनात्मक्ताएं एक अर्थ में मृत्यु का ही प्रतिकार हैं। मृत्यु के पार जाने, मृत्यु को लांघने की गहरी मानवीय कोशिशें।”
यहां मैं बस एक बात जोड़ना चाहूंगा – मेरे हिसाब से हमारी सारी सचमुच की कलाएं, genuine and serious art, मृत्यु को लांघने की नहीं उसे समझने की कोशिश हैं, उसे अपनाने की। सारी सृजनात्मकता escapist या attempts at immortality नहीं… बल्कि मैंने तो पिछले कुछ सालों में जो भी सबसे सुंदर, सबसे महान देखा-पढ़ा है, उसने मुझे अपनी mortality की ही याद दिलायी है। (अलबर्ट कामू के ‘The Outsider’ से लेकर Christopher Nolan की ‘Memento’ तक ने…)
और यहां आती हैं दो और चाबियां… दोनों mortality से deal करती हुईं। दोनों, मेरे हिसाब से एक ही उलझन के दो पहलू। उमेश विनायक कुलकर्णी की ‘विहीर’ और Terrence Malick की ‘The Tree Of Life’। दोनों फिल्में मैंने पिछले एक महीने में ही देखीं… और दोनों को एक दूसरे के (और अपनी मौजूदा खोज के) इतने करीब पाया कि थोड़ा हैरान भी हो गया।
दोनों में एक भाई है, जो दूसरे भाई के गुजर जाने को समझ रहा है। उसके जाने के बाद भी उसे ढूंढ रहा है। आम भाषा में जिसे ‘coming to terms with’ कहा जाता है, उसके ही लंबे, शांत, fragmented, और surreal से process पर एक गहरा अध्ययन। और दोनों ही अध्ययन न सिर्फ अपने आप में पूरे हैं… बल्कि इस process के दो बहुत ही नये रास्ते भी चुनते हैं।
‘विहीर’ हमें पहले दोनों भाइयों की दुनिया में ले जाती है… उनके खेल और एक दूसरे की जिंदगी में उनकी जरूरत को बहुत हौले से establish करती है। और फिर अचानक से, जैसे सचमुच की दुनिया में होता है, एक भाई को गायब कर देती है। अकेले रह गये भाई का bafflement आपका भी बन जाता है। जब वो सोच रहा होता है कि अब मैं कहां जाऊंगा, क्या करूंगा, कैसे रहूंगा भाई के बिना… हम भी यही सोच रहे होते हैं कि अब कहानी कहां जाएगी। और यहां उमेश कुलकर्णी और फिल्म के लेखक गिरीश कुलकर्णी कुछ अजब करते हैं। फिल्म शांत हो जाती है। उदास नायक के साथ बस चुपचाप चलने लगती है… जैसे वो दोस्त जो नहीं जानता कि क्या कहे कि दुःख कम हो जाए। उसे स्कूल में ध्यान लगाने की कोशिश करते, स्विमिंग पूल में खुद को झोंकते, बारिश में साइकल चलाते, घर से बिना बताये निकल पड़ते, ट्रेन के दरवाजे पर बैठे रोते, किसी अनजान जगह उतर जाते, किसी अजनबी की detached सी दुनिया में अपना विस्तार जानते… बस दो कदम पीछे से देखती रहती है।
और इससे कहीं दूर, किसी और ही plane पर चलती है Terrence Malick की The Tree of Life… अद्भुत बात यह है कि इसमें भी जब हम पहली बार उस छोटे भाई को देखते हैं जो 19 साल की उम्र में गुजर जाने वाला है, तो वो भी ‘विहीर’ के भाई की तरह परदे के पीछे छुपने का नाटक कर के कह रहा है, “Find me, brother!” (लुका-छुपी के खेल का motif ‘विहीर’ में पूरी फिल्म में है… Tree of Life में प्रत्यक्ष रूप से बस शुरुआती visual है।)
लेकिन जहां ‘विहीर’ इस दुनियावी सवाल का जवाब मन के अंदर खोजने को कहती है… वहीं Tree of Life हमें जवाब की खोज में यादों में ले जाती है। और सिर्फ किसी एक इंसान की यादों में नहीं…हमारी दुनिया की collective memories में। उस पल तक, जिस पल में किसी cosmic हलचल ने वो चक्र शुरू किया था, जिससे धरती बनी, धरती पर जीवन आया, evolution का छोटा पत्थर लंबे शून्य में फेंका गया, और वो पत्थर तब तक फिंकता रहा, जब तक कई शीत-ऊष्ण-शीत कालों को पार कर के दिमाग वाले इंसान पृथ्वी के हर-दिशा में बिखरे पिटारे को समेटने-नोचने नहीं लगे। लाखों सालों के इस थका देने वाले रूखे से घटना-चक्र को Malick ने ला कर सीधे फिल्म की emotional core से जोड़ दिया है।
उस हिसाब से देखा जाए, तो ‘विहीर’ हमें दुःख के इतना नजदीक ले जाती है कि हम उसे अपना ही हिस्सा मानने पर मजबूर हो जाते हैं, उसे accept कर लेते हैं, और Tree of Life उससे इतना दूर कि वो बहुत छोटा, इस grand perfect scheme का एक irrelevant chaotic detail लगने लगता है।
जैक, जो अपने छोटे भाई आरएल के 1960 के दशक में गुजर जाने के 40 साल बाद भी उस उदासी से नहीं निकल पाया है, उसकी पुण्य-तिथि पर बिस्तर से खोखला सा उठता है। साफ कांच और स्टील की ऊंची बिल्डिंगों वाले किसी वाइट-कॉलर दफ्तर में काम करने वाले जैक के चेहरे और बयान में existential crisis की साफ झलक है। और यहीं से फिल्म तय कर देती है कि इसका रास्ता existence की इस पहेली को समझना ज्यादा है… आरएल। की मौत (जो दिखाई भी नहीं गयी है, सिर्फ एक टेलीग्राम के जरिये खबर की तरह हम तक पहुंचाई गयी है…) इस पहेली की बस एक पंक्ति है।
जैक बचपन की अपनी यादों में उस एक दिन के दौरान आता-जाता रहता है और बीच में हम सोच सकते हैं कि क्या जैक ऐसा सिर्फ इस साल ही कर रहा है या हर साल करता है? या साल के हर दिन? Malick इसका कोई जवाब नहीं देते… जैसा कि वो इस फिल्म के बाकी अनेकों elements के साथ करते हैं। जैक के दिमाग के अंदर, उसकी यादों में घूमते हुए Malick ने जो imagery बनायी है, वो इतनी ज्यादा real है कि surreal लगती है। (जैसा कि मेरे कुछ दोस्त, मिहिर देसाई और सुमित पुरोहित, और शायद कुछ विदेशी क्रिटिक्स इस camera technique को God-cam का नाम दे रहे हैं… यानी कि कैमरा इतना नजदीक और candid है कि ऐसा लगता है खुद भगवान का बनाया हुआ होम-वीडियो है…) और बात सिर्फ तकनीक की ही नहीं… उन moments की है जो जैक के उन सालों को नापते हैं, जब वो नहीं जानता था कि ये छोटा-सा खालीपन, जो वो अपने बाप के गुस्से और expectations से दब के अपने अंदर पाता है, एक दिन इतना बड़ा गुब्बारा हो जाएगा कि वो इन्हीं दिनों को good ol’ days की तरह याद करेगा।
जैक के बचपन के ये दिन, जिनमें वो अक्सर गुमसुम सा रहता है, सिर्फ तब जाग उठते हैं, जब वो अपने दो छोटे भाइयों के साथ या अपनी मां जैसी मां (Jessica Chastain, इस फिल्म के सबसे सुकून देने वाले रोल में) के साथ अकेले होता है। उन पलों में जब वो aimless fun में डूबा होता है। पेड़ पर लटकना, पानी में खेलना, सड़क पर शराबी की तरह चलना… वो पल जो हमें existence की याद तक नहीं दिलाते। लेकिन Malick की कहानी, जैक को बार-बार उसी तरफ धकेलती है, जहां उसे “Unbearable Lightness Of Being” से उलझना पड़े। अगर फिल्म में ही दिये एक reference को पकड़ें, तो जैक Jewish mythology के Job हैं (Book of Job वाले, जिस पर Coen Bros भी एक शानदार फिल्म ‘A Serious Man’ बना चुके हैं…) जैक का विधान है बार बार इस सवाल से भागना, अपनी नश्वरता को भूलकर अपनी दुनिया बनाने की कोशिश करना, और बार-बार हारना। वो सड़क पर अपने भाई के साथ शराबी की नकल कर के भी खुश नहीं रह सकता, क्यूंकि तभी सामने से एक सचमुच का अपाहिज आता दिख जाता है। एक mindless fun अचानक से एक realization बन जाता है – एक जीवन भर के बोझ की निशानी।
इसी तरह एक और जगह, जो शायद फिल्म का सबसे ज्यादा दहला देने वाला सीन है, जैक के पास मौका है अपने पिता से बदला लेने का। जैक बदला लेता है या नहीं, यह छोटी बात है, लेकिन वो ऐसा सोच रहा है, यही उसके दुःख का चरम है। अपने माता-पिता, परम-पिता या जिस भी परम-शक्ति को आप मानते हों, उसके लिए ऐसा विचार सबके मन में कम से कम एक बार आया होगा। और जब भी यह विचार आया होगा, उस समय वो इंसान दुनिया का सबसे असहाय, इस चक्र के सबसे अंदर फंसा हुआ इंसान होगा।
लेकिन इतने सारे भारी-भरकम सवालों के बावजूद फिल्म कभी uncomfortable नहीं होती। कुछ घड़ियों में उदास करती है, कभी कभी परेशान भी करती है… लेकिन बस वैसे ही जैसे अंदर से उठती कोई टीस। बाहरी चोट कभी नहीं। और उसका सबसे बड़ा कारण है फिल्म का meditative form… और यह meditative सिर्फ नाम का या Hollywood में आजकल genre की तरह define होने वाले slow-cinema की तरह नहीं है… बल्कि अपने विचार, visuals, और narrative तीनों में बराबर तरह से है। बल्कि इसे ‘फिल्म’ कहना भी थोड़ा सा गलत है… इसे एक आवरण, एक प्रागैतिहासिक गुफा कहिए…. जिसकी दीवारों पर बने चित्रों को देखकर हम अपने atavistic डर, गुस्से और confusion समझने आये हैं। फिल्म में किसी भी मौके पर उस मौके से आगे जानने का मन नहीं करता… बस एक trance-like state में उसमें तैरते रहने की सी हालत है। इस गुफा में बहुत गहरा nostalgia है… बीच बीच में अंधेरा है… दूर एक चमकती सी रोशनी है… सन्नाटा है… और अंत में, closure के तौर पर, सफेद सूरज की दिशा में एक दरवाजा है, जिसमें जैक को फिर सुकून मिलता है।
और जैसा कि moifightclub ने भी लिखा है…
बाकी किसी चीज से भी ज्यादा, यह फिल्म आपका वो frame of mind मांगती है, जिसमें आप अपने अंदर पैठने के लिए तैयार हों… अपने किसी खोये हुए भाई को एक नये माध्यम से ढूंढने के लिए तैयार हों… उस जीवन और मौत को समझना चाहते हों जिसे क्रिया-क्रम के बाद भूल जाने का रिवाज है। ‘Life goes on’ के feelgood नारे से हटकर ‘What are we’ की किताब खोलना चाहते हों।
उस एक मौके का shock मैं शायद कभी नहीं भूलूंगा, जब पत्नी के cousin के जाने की खबर हमें मिली। लेकिन यह जरूर कह सकता हूं कि ‘विहीर’ और ‘The Tree of Life’ ने उस लहराते हुए दुःख को एक सवाल में बदलने में मदद की। एक perspective दिया… जैक के उस recurring dream वाली दुछत्ती तक पहुंचाया, जहां एक तरफ से धूप आती है और एक तरफ वो eternal दुःख का metaphor, अपाहिज आदमी खड़ा है। एक simplistic conclusion को एक realistic पहेली में बदल दिया। वो पहेली जो शायद सुलझे कभी नहीं लेकिन सुलझाना हमेशा जरूरी भी नहीं।
(वरुण ग्रोवर। आईआईटी से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद युवा फिल्मकार, पटकथा लेखक और समीक्षक हो गये। कई फिल्मों और टेलीविज़न कॉमेडी शोज़ के लिए पटकथाएं लिखीं। 2008 में टावर्स ऑफ मुंबई नाम की एक डाकुमेंट्री फिल्म भी बनायी। उनसे varun.grover26@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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