मुझे नहीं पता में सही था या गलत पर आज लग रहा है दोषी जरूर रहा हूँ हर उस कर्म का ओर लगाव का जो मैंने किया, यह माना कि पैदाईशी रिश्तों के अलावा अपने बनाए रिश्ते ज्यादा बड़े ओर निर्मल होते है, उन रिश्तों को बनाने ओर निभाने में एक उम्र गुजार दी पर अब सब पर से विश्वास ही उठ गया है, ओर बस कोसता हूँ अपने आप को कि क्यों किया यह सब, क्यों चलता चला गया में किसी ओर की जिंदगी में ओर फ़िर जब कोई अपना अंश ही नहीं तो कैसा नाता कैसा रिश्ता, इतना छलनी कभी नहीं हुआ, ठगुआ कौन नगरिया लूटल हो, कबीर कहते है, लड़ रहा हूँ अभी भी अपने आप से (मन की गांठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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