अनुज लुगुन को सन २०११ का भारत भूषण कविता पुरस्कार मिला है जिसके निर्णायक उदय प्रकाश थे
महाभारत में जहां से एकलव्य की कथा खत्म होती है …
अनुज लुगुन, कुंवर नारायण और अरुण देव
आमतौर पर कविता गोष्ठियां होती रहती हैं। कविताएं भी बहुतायत में पढ़ी जाती रहती हैं। प्रतिभाशाली कवियों से भरे इस समय में सबसे आम हैं जीवनानुभव। लगभग हर कवि का जीवन एक से परिवेश और एक सी महत्वाकांक्षाओं में विकसित हुआ लगता है। कारीगरी और ज्ञान की अलग अलग दक्षता के चलते किसी कवि का प्रभाव ज्यादा तीक्ष्ण होता है तो किसी का कम। पिछले कुछ सालों में ऐसा बहुत कम हुआ है कि बिल्कुल नये तरह के अनुभव, नये तरह के बिंब, नयी तरह की संवेदना और नये तरह के असर से हमें चौंकाया हो। सन 2000 के आसपास निर्मला पुतुल की संताली कविताओं ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा था।
जैसे अभी कल से ही इंडिया हैबिटैट सेंटर ने हिंदी कविता के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया है – कवि के साथ। कल तीन कवि थे। कुंवर नारायण, अरुण देव और अनुज लुगुन। कुंवर जी और अरुण देव अपेक्षाकृत जाने-माने नाम हैं। हिंदी कविता के आम और परिचित समुदाय के मुखिया लोग हैं ये। पर अनुज लुगुन निहायत ही एक अपरिचित नागरिकता का नाम है। झारखंड के सिमडेगा से आने वाले इस कवि को दिल्ली की सबसे संभ्रांत जगह पर कविता पढ़ने के लिए खोजा जाना अपने आप में खोजी खबर का आइडिया हो सकता है। अनुज लुगुन की कविताएं गुलमोहर हॉल की वातानुकूलित खामोशी में नगाड़े की तरह बज रही थी। उनके शब्द जितने तीखे थे, बर्ताव उतना ही कोमल। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि ऊबड़ खाबड़ जमीन से आया हूं, यहां असहज महसूस कर रहा हूं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शोध छात्र अनुज लुगुन ने कई कविताएं सुनायीं। उनमें से एक कविता एकलव्य से संवाद थी। उसकी एक भूमिका थी, जिसके बारे में अनुज ने कहा कि यह भूमिका भी कविता का अनिवार्य हिस्सा है – इसलिए इसका सुनाया जाना जरूरी है। यहां हम उनकी पूरी कविता छाप रहे हैं :
एकलव्य से संवाद
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अनुज लुगुन
एक
घुमंतू जीवन जीते
उनका जत्था आ पहुंचा था
घने जंगलों के बीच
तेज बहती अनाम
पहाड़ी नदी के पास
और उस पार की कौतुहूलता में
कुछ लोग नदी पार कर गये थे
और कुछ इधर ही रह गये थे
तेज प्रवाह के समक्ष अक्षम
तब तीर छोड़े गये थे
उस पार से इस पार
आखरी विदाई के
सरकंडों में आग लगाकर
और एक समुदाय बंट गया था
नदी के दोनों ओर
चट्टानों से थपेड़े खाती
उस अनाम नदी की लहरों के साथ
बहता चला गया उनका जीवन
जो कभी लहरों के स्पर्श से झूमती
जंगली शाखों की तरह झूम उठता था
तो कभी बाढ़ में पस्त वृक्षों की तरह सुस्त होता था
पर पानी के उतर जाने के बाद
मजबूती से फिर खड़ा हो जाता था
उनके जीवन में संगीत था
अनाम नदी के साथ
सुर मिलाते पपीहे की तरह
जीवन पल रहा था
एक पहाड़ के बाद
दूसरे पहाड़ को लांघते
और घने जंगल में सूखे पत्तों पर हुई
अचानक चर्राहट से
उनके हाथों में धनुष
ऐसे ही तन उठती थी।
दो
हवा के हल्के झोकों से
हिल पत्तों की दरार से
तुमने देख लिया था मदरा मुंडा
झुरमुटों में छिपे बाघ को
और हवा के गुजर जाने के बाद
पत्तों की पुन: स्थिति से पहले ही
उस दरार से गुजरे
तुम्हारे सधे तीर ने
बाघ का शिकार किया था
और तुम हुर्रा उठे थे -
‘जोवार सिकारी बोंगा जोवार!’
तुम्हारे शिकार को देख
एदेल और उनकी सहेलियां
हंडिया का रस तैयार करते हुए
आज भी गाती हैं तुम्हारे स्वागत में गीत
‘सेंदेरा कोड़ा को कपि जिलिब-जिलिबा।‘
तब भी तुम्हारे हाथों धनुष
ऐसे ही तना था।
तीन
घुप्प अमावस के सागर में
ओस से घुलते मचान के नीचे
रक्सा, डायन और चुड़ैलों के किस्सों के साथ
खेत की रखवाली करते कांडे हड़म
तुमने जंगल की नीखता को झंकरित करते नुगुरों के संगीत की अचानक उलाहना को
पहचान लिया था और
चर्र-चर्र-चर्र की समूह ध्वनि की
दिशा में कान लगाकर
अंधेरे को चीरता
अनुमान का सटीक तीर छोड़ा था
और सागर में अति लघु भूखंड की तरह
सनई की रोशनी में
तुमने ढूंढ निकाला था
अपने ही तीर को
जो बरहे की छाती में जा धंसा था।
तब भी तुम्हारे हाथों छूटा तीर
ऐसे ही तना था।
ऐसा ही हुनर था
जब डुंबारी बुरू से
सैकड़ों तीरों ने आग उगले थे
और हाड़-मांस का छरहरा बदन बिरसा
अपने अद्भुत हुनर से
भगवान कहलाया।
ऐसा ही हुनर था
जब मुंडाओं ने
बुरू इरगी के पहाड़ पर
अपने स्वशासन का झंडा लहराया था।
चार
हां एकलव्य!
ऐसा ही हुनर था।
ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अंगूठा दान करने के बाद
दो अंगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फंसाकर।
एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूं तुम्हारा कुर्सीनामा
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गांव की पत्थल गड़ी पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुंच जाता हूं।
लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है।
मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाजी में
भाई और पिता की तीरंदाजी में
अपनी मां और बहनों की तीरंदाजी में
हां एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
वहां से आगे
जहां महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है।
पांच
एकलव्य मैंने तुम्हें देखा हैतुम्हारे हुनर के साथ।
एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आये थे
केवल अपनी तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए
गुरु द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिन्ह भी खो गये
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल जमीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
जहर बुझे तीर से रक्त-रंजित
शब्दहीन इतिहास।
एकलव्य, काश! तुम आये होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाजी का हुनर
दो अंगुलियों के बीच
कमान में तीर फंसाकर।
एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर-धनुष के साथ ही आना
हां, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है
हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिन पर निशाना साधते-साधते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुंह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बंद कर सकती ह
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