जब कुछ खत्म होने लगता है तो आवाजे भी मंद पडने लगती है लगता है हम सिर्फ बोल रहे है ओर सुन नहीं पा रहे है ना खुद को ना अपने परिवेश को ना अपने लोगो को जिनको सुने बिना हम साँसे भी नहीं ले पाते थे पर कई बार अंदर से टूटन ही जोडती है ओर हम फ़िर से टूटते है ओर ज़िंदा रहने का स्वांग करते है जबकि हम मर चुके होते है, हम नहीं जानते कि आवाजो का शोर कहा से आता है कहा से ये भिनभिनाहट एक सुप्त सी जिंदगी में ढल जाती है बिलकुल मौत सी ओर फ़िर.बस अलविदा.......(मन की गांठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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