मन की आवारगी को समझते हुए कितनी दूर आ पहुंचा हूँ पर आज भी यह समझ नहीं आया कि ये सब क्या और कैसे हो गया, ऐसा सोचा तो नहीं था कभी सपने में भी फ़िर हकीकत का जिक्र करना तो पाप जैसा है जितना सोचता हूँ मवाद भरता जाता है दिल दिमाग में और लगता है कानो से टपकने लगेगा. मन उन्मुक्त आवारा की तरह सोचता है और फ़िर विचित्र से अपराधबोध, गुबार, संताप निकलने लगते है व्याकुलता इतनी बढ़ जाती है कि शरीर पर ज्वर का प्रकोप चढ जाता है हाथ पाँव निर्जीव होकर निढाल हो जाते है समझ का फेर क्या से क्या कर देता है और पूछता हूँ बार बार खुद से "तेरा मेरा मनवा कैसे एक होए रे.."(मन की गांठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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