लगता था कि सब मेरा था सब मेरा है पर जब एक बड़ा जाला साफ़ हुआ तो लगा कि कुछ नहीं मेरा है जो मेरा अंश ही नहीं वो कैसे अपना हो सकता है जब मोह के पाश से छूटकर जाते हुए जिंदगी ने पलटकर नहीं देखा तब तक में एक भ्रम में जीते रहा और जैसे ही यह भ्रम टूटता है तो लगता है सब कुछ खत्म हो गया दो लोगो का मौन भी कितनी बड़ा शून्य पैदा कर देता है यह जानकार हैरानी होती है कैसे हम ज़िंदा रह लेते है एक गहरी चुप के साथ (फेसबुक मेनिया)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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