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एक सार्थक बहस पर रास्ता किधर है............???

अनुज के साथ आदिवासी लगा कर क्‍या बताना चाहते हैं?

♦ विनीत कुमार

विनीत को इस बात पर आपत्ति है कि अनुज लुगुन को सिर्फ कवि क्‍यों नहीं माना जा रहा है, उसके साथ आदिवासी का विशेषण क्‍यों जोड़ा जा रहा है। अपने तर्क रखते हुए उन्‍होंने मोहल्‍ला लाइव को भी इसका दोषी माना है। विनीत खुद मोहल्‍ला लाइव का हिस्‍सा रहे हैं और वे जानते हैं कि समाज में हाशिये की आबादी को लेकर हमारा रुख क्‍या रहा है। दलित साहित्‍य को भी इसी आधार पर बरसों मुख्‍यधारा में जगह नहीं मिली। उसने अपनी धारा बनायी और आज उसी कसौटी पर प्रेमचंद तक को कटघरे में खड़ा किया जाता है। लेकिन सबसे दुर्दांत सच, जिसकी तरफ विनीत ने ध्‍यान नहीं दिया है – वह यह है कि मीडिया ने अनुज लुगुन को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार मिलने की खबर को कोई तवज्‍जो नहीं दी। साहित्‍य के सवर्ण कर्णधारों ने खामोशी ओढ़े रखी। किसी लेखक संगठन ने कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं की। विनीत जी, यह सब शायद इसलिए क्‍योंकि अनुज लुगुन कवि होने के साथ ही आदिवासी जो है। बेशक, यह पुरस्‍कार कविता को मिला है – लेकिन कवि जिस संघर्ष की परंपरा से आता है, उसका जिक्र होना लाजिमी है। आदिवासी भारत की दूसरी जातियों की तरह महज एक जातिगत संबोधन नहीं है, यह एक ऐसी अस्मिता से जुड़ा हुआ संबोधन है, जिसकी सतह पर हमेशा एक संघर्ष तैरता रहता है : मॉडरेटर

क झारखंडी के लिए इससे सुखद शायद कुछ नहीं हो सकता कि पहाड़ों, पठारों और जंगलों के बीच उसने जिन आदिवासियों को पशु चराते देखा, रूपये-दो रूपये के लिए लकड़ियां बीनते देखा, सत्तर-अस्सी किलो के बोझे को अपने ही कम वजन के शरीर पर ढोते देखा है, उन्हीं जंगलों, पहाड़ों के बीच से गुजरता हुआ कोई कवि हो जाए। उसकी कविता में अधिकार, स्वतंत्रता, हक के लिए वो आदिम बेचैनी हो जो कि शहर में आते ही महज एक खूबसूरत अभिव्यक्ति बनकर रह जाती है। आदिवासी होने की उसकी बिडंबना पंक्तियों में आते ही संघर्ष का सौंदर्य पैदा करता हो। जो अपनी कविता लिखकर जमाने के आगे सहानुभूति की मांग न रखकर उससे गुजरकर चिंगारी को परखने की उम्मीद रखता हो। जो अपनी रचना को किसी भी रूप में एक आदिवासी के हाथ का लिखा आवेदन पत्र बनने देने को तैयार नहीं हो। जो नहीं चाहता कि उसे लिखे पर आरक्षण की सुविधा लागू की जाए। ऐसे में एक सवाल तो बनता ही है कि क्या अनुज लुगुन की कविता को भारत भूषण अग्रवाल सम्मान मिलने पर हमें उसी भाषा में बात या तारीफ करनी चाहिए, जिस भाषा में हम किसी आदिवासी या वंचित समाज के प्रतिभागी के आइएएस/आइपीएस या किसी बड़े अधिकारी के बन जाने पर करते हैं? क्या एक आदिवासी कवि के सम्मानित किये जाने की वही भाषा होगी, जो भाषा आरक्षित सीट पर किसी प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होने पर प्रतिभागी की होती है? हम किसी न किसी तरह से उस समय भी तारीफ या सम्मान में उस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जिससे कि लोगों को इस बात का एहसास हो कि उसने सामान्य प्रतिभागियों की तरह मेहनत करके, घिसकर सफलता अर्जित नहीं की है? क्या हम अनुज लुगुन के साथ कुछ ऐसा ही कर रहे हैं?

एक आदिवासी कवि का हिंदी कविता के लिए पुरस्कार का मिलना क्या सचमुच इतने ताज्जुब की बात है? अगर हां तो फिर हम उसके आदिवासी होने पर ताज्जुब कर रहे हैं या फिर उसके कविता लिखने पर? माफ कीजिएगा, वर्चुअल स्पेस जिसमें कि मोहल्लालाइव भी शामिल है और मेनस्ट्रीम मीडिया ने अनुज लुगुन के पुरस्कार मिलने की खबर को कुछ इस तरह से प्रोजेक्ट किया कि अनुज लुगुन की जो छवि उभर आयी, उसके अनुसार वो पहले आदिवासी है, उसके बाद कवि। जन्म से वो सचमुच पहले आदिवासी हैं लेकिन क्या उन्हें ये पुरस्कार सिर्फ आदिवासी होने की वजह से मिला है? अगर नहीं तो फिर उनकी कविता के बजाय उनका आदिवासी होना इतना क्यों महत्वपूर्ण हो गया है? मौजूदा दौर में पाठ को देखने और विमर्श करने का जो प्रावधान है, उसमें पाठ ही सब कुछ है, उससे इतर कुछ भी नहीं। अब पहले की तरह रचनाकार का परिचय नहीं लिखा जाता कि फलां का जन्म उच्च कुल ब्राह्मण परिवार में हुआ था… जिससे कि आप पाठ के पहले ही एक खास किस्म की समझ के साथ उन्हें पढ़ना शुरू करें। फिलहाल पाठ को देखने का तरीका अब तक का सबसे तटस्थ और वस्तुनिष्ठ है। ऐसे में ये आलोचना या पाठ प्रक्रिया के ठीक विपरीत कर्म है। दूसरा कि क्या बाकी के दूसरे कवियों को पुरस्कार मिलता है, तो उनका ब्राह्मण, राजपूत या बनिया होना ठीक उसी तरह प्रमुख हो जाता है, जिस तरह से अनुज लुगुन का आज आदिवासी होना हो गया है? मुझे लगता है कि ऐसा करके हम एक बार फिर से हम रचना के बजाय रचनाकार के सिरे से सोचने की कोशिश कर रहे हैं।

अनुज लुगुन अगर हिंदी में लिखनेवाले पहले ऐसे आदिवासी कवि हैं, तो ये हमारे लिए गर्व करने से कहीं ज्यादा डूब मरनेवाली स्थिति है कि जिस प्रदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए करोड़ों रुपये स्वाहा किये गये, वहां अब तक हिंदी में पंक्ति बनानेवाला पुरस्कार पाने लायक नहीं हुआ। उसके बाद जाकर हमें खुश होना चाहिए कि निर्णायकों ने उसकी खोज करके जगह दी है। हम इस काम के लिए उन्हें शुक्रिया अदा करते हैं। लेकिन यहां भी, उनकी वस्तुनिष्ठता और रचना के स्तर पर बराबर की समझ रखने की तारीफ करने के बजाय, आदिवासी कवि के चुन लिये जाने का अतिरिक्त विज्ञापन क्यों करें? क्या उदय प्रकाश और बाकी शामिल लोगों को कोई निर्देश जारी किया गया था कि आप वंचित समाज से किसी ऐसे कवि को चुनें, जिससे लगे कि पुरस्कार के साथ सामाजिक समानता के स्तर पर न्याय हो रहा है? क्या ये कोई सरकारी विधान है कि एक-एक करके सबका प्रतिनिधित्व होना ही चाहिए? अगर ऐसा नहीं है, अनुज लुगुन को स्वाभाविक तरीके से उनकी कविता के लिए चुना जाना है तो फिर इस पूरे प्रावधान को विज्ञापन की शक्ल देने की क्या जरूरत है? यह ठीक है कि पुरस्कार देना और पाना इतनी मासूम प्रक्रिया नहीं है। साहित्य के लिए पुरस्कार देना और पाना कोई राष्ट्रीय घटना नहीं है या है भी तो लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता जैसा मामला है नहीं, तो 2जी और कॉमनवेल्थ की तरह इसके भीतर भी घोटाले और धांधलियों की जांच होती, यहां भी भारी झोल है। ये अकारण नहीं है कि कई बेहतरीन साहित्यकारों की जब चला-चली की बेला आती है तो पुरस्कृत किया जाता है, कइयों की नोटिस तक नहीं ली जाती। ऐसे में उदय प्रकाश की निर्णायक समिति ने अनुज लुगुन की कविता को चुनकर सचमुच में सबसे अलग और विश्वसनीय काम किया है। लेकिन सम्मान देने और पाने के बाद क्या वाकई उदय प्रकाश और अनुज लुगुन की ऐसी ही छवि उकेरी जानी चाहिए, जो छवि हम आज देख रहे हैं? कहीं हम इसे जबरदस्ती रचना की ताकत के बजाय पारंपरिक हिसाब चुकता करने का साधन तो नहीं बना दे रहे हैं? ऐसे में अनुज लुगुन के लिए सबसे बड़ी बिडंबना होगी कि वो उन सैकड़ों लोगों की तरह कविता के नाम पर महज खूबसूरत अभिव्यक्ति करने से अलग लिखकर भी अपने को पहले कवि और तब आदिवासी के तौर पर जगह नहीं बना पाएंगे।

इधर उदय प्रकाश के निर्णय को एक संवेदनशील रचनाकार का निर्णय के बजाय समाज सुधारक की छवि चस्‍पांने का अलग से काम हो जाएगा, जिसकी कि जरूरत नहीं है। उदय प्रकाश अपनी रचनाओं की तरह ही निर्णय के स्तर पर भी विश्वसनीय हैं, इसके लिए जरूरी है कि ये छवि चस्‍पांने बंद किये जाएं। अच्छा, एक बात और…

हम अनुज लुगुन के साथ बार-बार आदिवासी जोड़कर कहीं हिंदी कविता को दैवी विधान तो करार नहीं दे रहे और लोगों को आश्चर्य प्रकट करने के लिए स्पेस पैदा कर रहे हैं कि अरे, आदिवासी होकर भी हिंदी में कविता कर रहा है? ये कोशिश कहीं न कहीं हमें कविता और हिंदी को लेकर उसी ठस्स सोच की तरफ ले जाती है, जहां से इस बात की स्थापना शुरू हुई कि कविता या लेखन कर्म सबके बूते की बात नहीं है। हम ऐसा करते हुए कहीं न कहीं इसे बहुत ही अलग, परिष्कृत और महान कार्य करार देना चाह रहे हैं और उससे अनुज लुगुन को अलग कर रहे हैं। क्या कभी किसी अखबार या पत्रिका ने तब भी स्टोरी की थी, जब अनुज बीएचयू जैसे हिंदी-संस्कृत का गढ़ माने जानेवाले विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ने के लिए प्रवेश लिया था? क्या बचपन से ही संथाली-उरांव बोलकर बड़े होनेवाले शख्स के लिए तब ये खबर नहीं थी? अगर नहीं तो फिर कविता लिखने और पुरस्कार मिलने पर क्यों? ऐसा करके कहीं हम अनुज लुगुन को वहीं तो नहीं पटक दे रहे हैं, जहां से उसने अपनी पोटली में संघर्ष, प्रतिरोध, अधिकार और हक को तो चुना (शायद कविता के लिए ही) लेकिन वो परिवेश छोड़कर बनारस चला आया? अनुज की उस मेहनत पर ऐसे पानी मत फेरिए प्लीज…

(विनीत कुमार। युवा और तीक्ष्‍ण मीडिया विश्‍लेषक। ओजस्‍वी वक्‍ता। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से शोध। मशहूर ब्‍लॉग राइटर। कई राष्‍ट्रीय सेमिनारों में हिस्‍सेदारी, राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। हुंकार और टीवी प्‍लस नाम के दो ब्‍लॉग। उनसे vineetdu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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