सूर्यास्त के बाद दिन खत्म हो गया था ओर सांझ ने अपना आँचल पसराना शुरू कर दिया था जो गहरे तिमिर तक जाकर रूकी, स्तब्धता ओर नीरव सन्नाटे के बीच ये कैसा शोर था ये कैसी आवाजें थी जो बेचैन कर रही थी दूर से कही आता शोर- उथल पुथल मन को बहुत अशांत कर रही थी कही से भी एक पत्ता नहीं खटक रहा था कि उसका सहारा मिल जाए बस एक जुगनू अपनी तीव्र आवाज के साथ व्योम में घूम रहा था जैसे मन के किसी कोने में तुम रहते हो ओर हरदम राह दिखाते रहते हो, रात गहरा रही थी ओर विभावरी तक साँसे कैसे आई यह नहीं जानता(मन की गांठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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