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मैं अन्ना नहीं होना चाहूंगी : अरुंधती राय

अरुंधती राय : अन्ना की मांगें गांधीवादी नहीं हैं


अरुंधती राय का यह महत्वपूर्ण आलेख आज 21 अगस्त के हिन्दू में प्रकाशित हुआ है...















(अनुवाद : मनोज पटेल)

उनके तौर-तरीके भले ही गांधीवादी हों मगर उनकी मांगें निश्चित रूप से गांधीवादी नहीं हैं.

जो कुछ भी हम टी. वी. पर देख रहे हैं अगर वह सचमुच क्रान्ति है तो हाल फिलहाल यह सबसे शर्मनाक और समझ में न आने वाली क्रान्ति होगी. इस समय जन लोकपाल बिल के बारे में आपके जो भी सवाल हों उम्मीद है कि आपको ये जवाब मिलेंगे : किसी एक पर निशान लगा लीजिए - (अ) वन्दे मातरम, (ब) भारत माता की जय, (स) इंडिया इज अन्ना, अन्ना इज इंडिया, (द) जय हिंद.

आप यह कह सकते हैं कि, बिलकुल अलग वजहों से और बिलकुल अलग तरीके से, माओवादियों और जन लोकपाल बिल में एक बात सामान्य है. वे दोनों ही भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. एक नीचे से ऊपर की ओर काम करते हुए, मुख्यतया सबसे गरीब लोगों से गठित आदिवासी सेना द्वारा छेड़े गए सशस्त्र संघर्ष के जरिए, तो दूसरा ऊपर से नीचे की तरफ काम करते हुए ताजा-ताजा गढ़े गए एक संत के नेतृत्व में, अहिंसक गांधीवादी तरीके से जिसकी सेना में मुख्यतया शहरी और निश्चित रूप से बेहतर ज़िंदगी जी रहे लोग शामिल हैं. (इस दूसरे वाले में सरकार भी खुद को उखाड़ फेंके जाने के लिए हर संभव सहयोग करती है.)

अप्रैल 2011 में, अन्ना हजारे के पहले "आमरण अनशन" के कुछ दिनों बाद भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े घोटालों से, जिसने सरकार की साख को चूर-चूर कर दिया था, जनता का ध्यान हटाने के लिए सरकार ने टीम अन्ना को ("सिविल सोसायटी" ग्रुप ने यही ब्रांड नाम चुना है) नए भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून की ड्राफ्टिंग कमेटी में शामिल होने का न्योता दिया. कुछ महीनों बाद ही इस कोशिश को धता बताते हुए उसने अपना खुद का विधेयक संसद में पेश कर दिया जिसमें इतनी कमियाँ थीं कि उसे गंभीरता से लिया ही नहीं जा सकता था.

फिर अपने दूसरे "आमरण अनशन" के लिए तय तारीख 16 अगस्त की सुबह, अनशन शुरू करने या किसी भी तरह का अपराध करने के पहले ही अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. जन लोकपाल बिल के लिए किया जाने वाला संघर्ष अब विरोध करने के अधिकार के लिए संघर्ष और खुद लोकतंत्र के लिए संघर्ष से जुड़ गया. इस 'आजादी की दूसरी लड़ाई' के कुछ ही घंटों के भीतर अन्ना को रिहा कर दिया गया. उन्होंने होशियारी से जेल छोड़ने से इन्कार कर दिया, बतौर एक सम्मानित मेहमान तिहाड़ जेल में बने रहे और किसी सार्वजनिक स्थान पर अनशन करने के अधिकार की मांग करते हुए वहीं पर अपना अनशन शुरू कर दिया. तीन दिनों तक जबकि तमाम लोग और टी.वी. चैनलों की वैन बाहर जमी हुई थीं, टीम अन्ना के सदस्य उच्च सुरक्षा वाली इस जेल में अन्दर-बाहर डोलते रहे और देश भर के टी.वी. चैनलों पर दिखाए जाने के लिए उनके वीडियो सन्देश लेकर आते रहे. (यह सुविधा क्या किसी और को मिल सकती है?) इस बीच दिल्ली नगर निगम के 250 कर्मचारी, 15 ट्रक और 6 जे सी बी मशीनें कीचड़ युक्त रामलीला मैदान को सप्ताहांत के बड़े तमाशे के लिए तैयार करने में दिन रात लगे रहे. अब कीर्तन करती भीड़ और क्रेन पर लगे कैमरों के सामने, भारत के सबसे महंगे डाक्टरों की देख रेख में, बहुप्रतीक्षित अन्ना के आमरण अनशन का तीसरा दौर शुरू हो चुका है. टी.वी. उद्घोषकों ने हमें बताया कि "कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है."

उनके तौर-तरीके गांधीवादी हो सकते हैं मगर अन्ना हजारे की मांगें कतई गांधीवादी नहीं हैं. सत्ता के विकेंद्रीकरण के गांधी जी के विचारों के विपरीत जन लोकपाल बिल एक कठोर भ्रष्टाचार निरोधी क़ानून है जिसमें सावधानीपूर्वक चुने गए लोगों का एक दल हजारों कर्मचारियों वाली एक बहुत बड़ी नौकरशाही के माध्यम से प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, संसद सदस्य, और सबसे निचले सरकारी अधिकारी तक यानी पूरी नौकरशाही पर नियंत्रण रखेगा. लोकपाल को जांच करने, निगरानी करने और अभियोजन की शक्तियां प्राप्त होंगी. इस तथ्य के अतिरिक्त कि उसके पास खुद की जेलें नहीं होंगी यह एक स्वतंत्र निजाम की तरह कार्य करेगा, उस मुटाए, गैरजिम्मेदार और भ्रष्ट निजाम के जवाब में जो हमारे पास पहले से ही है. एक की बजाए, बहुत थोड़े से लोगों द्वारा शासित दो व्यवस्थाएं.

यह काम करेगी या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि भ्रष्टाचार के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या है? क्या भ्रष्टाचार सिर्फ एक कानूनी सवाल, वित्तीय अनियमितता या घूसखोरी का मामला है या एक बेहद असमान समाज में सामाजिक लेन-देन की व्यापकता है जिसमें सत्ता थोड़े से लोगों के हाथों में संकेंद्रित रहती है? मसलन शापिंग मालों के एक शहर की कल्पना करिए जिसकी सड़कों पर फेरी लगाकर सामान बेचना प्रतिबंधित हो. एक फेरी वाली, हल्के के गश्ती सिपाही और नगर पालिका वाले को एक छोटी सी रकम घूस में देती है ताकि वह क़ानून के खिलाफ उन लोगों को अपने सामान बेंच सके जिनकी हैसियत शापिंग मालों में खरीददारी करने की नहीं है. क्या यह बहुत बड़ी बात होगी? क्या भविष्य में उसे लोकपाल के प्रतिनिधियों को भी कुछ देना पड़ेगा? आम लोगों की समस्याओं के समाधान का रास्ता ढांचागत असमानता को दूर करने में है या एक और सत्ता केंद्र खड़ा कर देने में जिसके सामने लोगों को झुकना पड़े.

अन्ना की क्रान्ति का मंच और नाच, आक्रामक राष्ट्रवाद और झंडे लहराना सबकुछ आरक्षण विरोधी प्रदर्शनों, विश्व कप जीत के जुलूसों और परमाणु परीक्षण के जश्नों से उधार लिया हुआ है. वे हमें इशारा करते हैं कि अगर हमने अनशन का समर्थन नहीं किया तो हम 'सच्चे भारतीय' नहीं हैं. चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों ने तय कर लिया है कि देश भर में और कोई खबर दिखाए जाने लायक नहीं है.

यहाँ अनशन का मतलब मणिपुर की सेना को केवल शक की बिना पर हत्या करने का अधिकार देने वाले क़ानून AFSPA के खिलाफ इरोम शर्मिला के अनशन से नहीं है जो दस साल तक चलता रहा (उन्हें अब जबरन भोजन दिया जा रहा है). अनशन का मतलब कोडनकुलम के दस हजार ग्रामीणों द्वारा परमाणु बिजली घर के खिलाफ किए जा रहे क्रमिक अनशन से भी नहीं है जो इस समय भी जारी है. 'जनता' का मतलब मणिपुर की जनता से नहीं है जो इरोम के अनशन का समर्थन करती है. वे हजारों लोग भी इसमें शामिल नहीं हैं जो जगतसिंहपुर या कलिंगनगर या नियमगिरि या बस्तर या जैतपुर में हथियारबंद पुलिसवालों और खनन माफियाओं से मुकाबला कर रहे हैं. 'जनता' से हमारा मतलब भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों और नर्मदा घाटी के बांधों के विस्थापितों से भी नहीं होता. अपनी जमीन के अधिग्रहण का प्रतिरोध कर रहे नोयडा या पुणे या हरियाणा या देश में कहीं के भी किसान 'जनता' नहीं हैं.

'जनता' का मतलब सिर्फ उन दर्शकों से है जो 74 साल के उस बुजुर्गवार का तमाशा देखने जुटी हुई है जो धमकी दे रहे हैं कि वे भूखे मर जाएंगे यदि उनका जन लोकपाल बिल संसद में पेश करके पास नहीं किया जाता. वे दसियों हजार लोग 'जनता' हैं जिन्हें हमारे टी.वी. चैनलों ने करिश्माई ढंग से लाखों में गुणित कर दिया है, ठीक वैसे ही जैसे ईसा मसीह ने भूखों को भोजन कराने के लिए मछलियों और रोटी को कई गुना कर दिया था. "एक अरब लोगों की आवाज़" हमें बताया गया. "इंडिया इज अन्ना."

वह सचमुच कौन हैं, यह नए संत, जनता की यह आवाज़? आश्चर्यजनक रूप से हमने उन्हें जरूरी मुद्दों पर कुछ भी बोलते हुए नहीं सुना है. अपने पड़ोस में किसानों की आत्महत्याओं के मामले पर या थोड़ा दूर आपरेशन ग्रीन हंट पर, सिंगूर, नंदीग्राम, लालगढ़ पर, पास्को, किसानों के आन्दोलन या सेज के अभिशाप पर, इनमें से किसी भी मुद्दे पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा है. शायद मध्य भारत के वनों में सेना उतारने की सरकार की योजना पर भी वे कोई राय नहीं रखते.

हालांकि वे राज ठाकरे के मराठी माणूस गैर-प्रान्तवासी द्वेष का समर्थन करते हैं और वे गुजरात के मुख्यमंत्री के विकास माडल की तारीफ़ भी कर चुके हैं जिन्होनें 2002 में मुस्लिमों की सामूहिक हत्याओं का इंतजाम किया था. (अन्ना ने लोगों के कड़े विरोध के बाद अपना वह बयान वापस ले लिया था मगर संभवतः अपनी वह सराहना नहीं.)

इतने हंगामे के बावजूद गंभीर पत्रकारों ने वह काम किया है जो पत्रकार किया करते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अन्ना के पुराने रिश्तों की स्याह कहानी के बारे में अब हम जानते हैं. अन्ना के ग्राम समाज रालेगान सिद्धि का अध्ययन करने वाले मुकुल शर्मा से हमने सुना है कि पिछले 25 सालों से वहां ग्राम पंचायत या सहकारी समिति के चुनाव नहीं हुए हैं. 'हरिजनों' के प्रति अन्ना के रुख को हम जानते हैं : "महात्मा गांधी का विचार था कि हर गाँव में एक चमार, एक सुनार, एक लुहार होने चाहिए और इसी तरह से और लोग भी. उन सभी को अपना काम अपनी भूमिका और अपने पेशे के हिसाब से करना चाहिए, इस तरह से हर गाँव आत्म-निर्भर हो जाएगा. रालेगान सिद्धि में हम यही तरीका आजमा रहे हैं." क्या यह आश्चर्यजनक है कि टीम अन्ना के सदस्य आरक्षण विरोधी (और योग्यता समर्थक) आन्दोलन यूथ फार इक्वेलिटी से भी जुड़े रहे हैं? इस अभियान की बागडोर उनलोगों के हाथ में है जो ऐसे भारी आर्थिक अनुदान पाने वाले गैर सरकारी संगठनों को चलाते हैं जिनके दानदाताओं में कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स भी शामिल हैं. टीम अन्ना के मुख्य सदस्यों में से अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया द्वारा चलाए जाने वाले कबीर को पिछले तीन सालों में फोर्ड फाउंडेशन से 400000 डालर मिल चुके हैं. इंडिया अगेंस्ट करप्शन अभियान के अंशदाताओं में ऎसी भारतीय कम्पनियां और संस्थान शामिल हैं जिनके पास अल्युमिनियम कारखाने हैं, जो बंदरगाह और सेज बनाते हैं, जिनके पास भू-संपदा के कारोबार हैं और जो करोड़ों करोड़ रूपए के वित्तीय साम्राज्य वाले राजनीतिकों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं. उनमें से कुछ के खिलाफ भ्रष्टाचार एवं अन्य अपराधों की जांच भी चल रही है. आखिर वे इतने उत्साह में क्यों हैं?

याद रखिए कि विकीलीक्स द्वारा किए गए शर्मनाक खुलासों और एक के बाद दूसरे घोटालों के उजागर होने के समय ही जन लोकपाल बिल के अभियान ने भी जोर पकड़ा. इन घोटालों में 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला भी था जिसमें बड़े कारपोरेशनों, वरिष्ठ पत्रकारों, सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस तथा भाजपा के नेताओं ने तमाम तरीके से साठ-गाँठ करके सरकारी खजाने का हजारों करोड़ रूपया चूस लिया. सालों में पहली बार पत्रकार और लाबीइंग करने वाले कलंकित हुए और ऐसा लगा कि कारपोरेट इंडिया के कुछ प्रमुख नायक जेल के सींखचों के पीछे होंगे. जनता के भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन के लिए बिल्कुल सटीक समय. मगर क्या सचमुच?

ऐसे समय में जब राज्य अपने परम्परागत कर्तव्यों से पीछे हटता जा रहा है और निगम और गैर सरकारी संगठन सरकार के क्रिया कलापों को अपने हाथ में ले रहे हैं (जल एवं विद्युत् आपूर्ति, परिवहन, दूरसंचार, खनन, स्वास्थ्य, शिक्षा); ऐसे समय में जब कारपोरेट के स्वामित्व वाली मीडिया की डरावनी ताकत और पहुँच लोगों की कल्पना शक्ति को नियंत्रित करने की कोशिश में लगी है; किसी को सोचना चाहिए कि ये संस्थान भी -- निगम, मीडिया और गैर सरकारी संगठन -- लोकपाल के अधिकार-क्षेत्र में शामिल किए जाने चाहिए. इसकी बजाए प्रस्तावित विधेयक उन्हें पूरी तरह से छोड़ देता है.

अब औरों से ज्यादा तेज चिल्लाने से, ऐसे अभियान को चलाने से जिसके निशाने पर सिर्फ दुष्ट नेता और सरकारी भ्रष्टाचार ही हो, बड़ी चालाकी से उन्होंने खुद को फंदे से निकाल लिया है. इससे भी बदतर यह कि केवल सरकार को राक्षस बताकर उन्होंने अपने लिए एक सिंहासन का निर्माण कर लिया है, जिसपर बैठकर वे सार्वजनिक क्षेत्र से राज्य के और पीछे हटने और दूसरे दौर के सुधारों को लागू करने की मांग कर सकते हैं -- और अधिक निजीकरण, आधारभूत संरचना और भारत के प्राकृतिक संसाधनों तक और अधिक पहुँच. ज्यादा समय नहीं लगेगा जब कारपोरेट भ्रष्टाचार को कानूनी दर्जा देकर उसका नाम लाबीइंग शुल्क कर दिया जाएगा.

क्या ऎसी नीतियों को मजबूत करने से जो उन्हें गरीब बनाती जा रही है और इस देश को गृह युद्ध की तरफ धकेल रही है, 20 रूपए प्रतिदिन पर गुजर कर रहे तिरासी करोड़ लोगों का वाकई कोई भला होगा?

यह डरावना संकट भारत के प्रतिनिधिक लोकतंत्र के पूरी तरह से असफल होने की वजह से पैदा हुआ है. इसमें विधायिका का गठन अपराधियों और धनाढ्य राजनीतिकों से हो रहा है जो जनता की नुमाइन्द्गी करना बंद कर चुके हैं. इसमें एक भी ऐसा लोकतांत्रिक संस्थान नहीं है जो आम जनता के लिए सुगम हो. झंडे लहराए जाने से बेवकूफ मत बनिए. हम भारत को आधिपत्य के लिए एक ऐसे युद्ध में बंटते देख रहे हैं जो उतना ही घातक है जितना अफगानिस्तान के युद्ध नेताओं में छिड़ने वाली कोई जंग. बस यहाँ दांव पर बहुत कुछ है, बहुत कुछ.
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