हिंदी कविता के सीमित वृत्त का विस्तार हैं अनुज लुगुन
अनुज लुगुन हिंदी के कवि-समाज के नये नागरिक हैं। उनकी नागरिकता अनेक दृष्टियों से रेखांकित किये जाने योग्य है। लगभग एक हजार साल की हिंदी की कवि-परंपरा में वे प्राय: पहले महत्वपूर्ण कवि हैं, जो भारत के विस्तृत आदिवासी समाज के अनुभव लेकर कविता की दुनिया में आये हैं। उनकी कवि-संवेदना मूलत: आदिवासी संवेदना है। वे कविता में प्राय: एक आदिवासी की तरह आंख खोलते हैं। दुनिया को देखने के उनके नजरिये में आदिवासी-निगाह की भूमिका केंद्रीय है। अनुज लुगुन की उपस्थिति हिंदी कविता के सीमित वृत्त को विस्तृत करती है। हिंदी कविता की जनपक्षधर कविता का दायरा भी इससे फैलता है। महानता के कथित परिप्रेक्ष्यों को छोड़ दिया जाए तो कबीर, रैदास, मीरा, हीरा डोम, अछूतानंद, नागार्जुन, त्रिलोचन, अनामिका, कात्यायनी और नीलेश रघुवंशी की उपस्थिति से हिंदी कविता जैसे नये अनुभवों और नये सवालों से दो-चार होती है, वैसे ही इस नये की आमद से। भारतीय राष्ट्र और लोकतंत्र जैसे हाशिये की अब तक अनसुनी आवाजों के आगमन से ज्यादा संवादी हो रहा है, वैसे ही इन समाजों के कवियों के आगमन से हिंदी कविता।
अनुज लुगुन की कविताएं जनपक्षधर हिंदी काव्य-धारा से जुड़ती हैं। भारतीय समाज में मौजूद वर्ग-भेद, अन्याय और असमानता तथा भारतीय राष्ट्र-राज्य और लोकतंत्र के पूंजीवादी रुझानों से उपजी गैरबराबरी और शोषण प्रक्रिया पर वे एक आदिवासी की तरह सवालिया निशान लगाते हैं। उनकी कविताएं जो सवाल खड़े करती हैं, वे असुविधाजनक परंतु अनिवार्य हैं। इन सवालों को आदिवासी इलाकों में हो रही हलचलों के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। लोकतंत्र द्वारा विकास के नाम पर चलायी जा रही पूंजीवादी परियोजनाओं ने आदिवासियों को उनके बुनियादी जीवन-आधारों जल, जंगल, जमीन से वंचित करने की जो प्रक्रिया शुरू की है, अनुज उसके आदिवासी-पक्ष का बयान करते हैं। वे देख पाते हैं कि यह वस्तुत: संपत्तिशाली शक्तिवान प्रभु वर्ग के हित में चलायी जा रही लूट-परियोजना, जिसके मार्ग में कोई भी बाधा डालने पर औपनिवेशिक युग के कानून और पुलिस-तंत्र का सहारा लेकर तथाकथित जनतांत्रिक सरकारें बेबस और लड़ाके आदिवासियों का दमन करती हैं। आदिवासियों के आंदोलनों से उपजे और प्रभावी हुए राजनीतिक समूह और राजनेता बुर्जुआ राजनीति का हिस्सा बन गये हैं और इस तरह इस लूट में भागीदार हैं। अनुज की कविताएं उपनिवेशवाद के विरुद्ध लड़े गये जन-युद्धों की शानदार स्मृति को धारण करती है और मौजूदा बुर्जुआ राजनीति के समानांतर उन्हें रख कर अपनी वैचारिकता का स्पष्ट प्रकटन करती हैं।
अनुज लुगुन की कविताएं अब तक ज्यादा संख्या में प्रकाशित नहीं हुई हैं, परंतु जितनी भी कविताएं सामने आयी हें, उनसे उनकी सजग संवेदनशील प्रश्नाकुल प्रतिरोधी कवि-संवेदना का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। ‘प्रगतिशील वसुधा’ के अंक 85, अप्रैल-जून 2010 में प्रकाशित उनकी कविता ‘अघोषित उलगुलान’ अनेक मायनों में उनकी कवि-दृष्टि और प्रतिभा का प्रतिनिधि उदाहरण है। पूंजीवादी विकास-प्रक्रिया से पैदा हुए अमानवीय विस्थापन, आदिवासी राजनीति के बुर्जुआकरण, धर्मांतरण की राजनीति जैसे सवालों को एक साथ उठाते हुए वे हमारे समय में आदिवासियों द्वारा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए किये जा रहे प्रयासों को ‘अघोषित उलगुलान’ की संज्ञा देते हैं। पूंजीवादी लूट-तंत्र में यह उलगुलान उन साधारण और बेबस आदिवासियों द्वारा लड़ा जा रहा है…
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है जिनके जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन
बिरसा मुंडा के शानदार संघर्ष की ऐसी स्मृति वर्तमान की त्रासद विडंबना को गहरा करती है।
अनुज लुगुन की आवाज कविता के जनतंत्र में एक संघर्षशील समाज के प्रतिनिधि की तरह शामिल होती है, जिसे आज ही सुनना बेहद जरूरी है।
(आशीष त्रिपाठी। कवि, समालोचक। रंग आलोचना पर कुछ किताबें। नामवर जी के व्याख्यानों का संकलन-संयोजन-संपादन। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हैं और फिलहाल बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक। उनसे rewasatna@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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