देखा यहाँ वहा और फ़िर लौट आया और उस संसार में रमता जोगी क्या करता नेह के दिए लेकर निकला एक अवधू बांटता रहा आलोक और ढूंढता रहा बाती बाती और फ़िर लो जलाकर करता रहा इश्क एक दरवेश लंबे समय तक, फ़िर देखा कि छूट रहा है टूट रहा है कतरा कतरा जीवन, अपनी इहलीला खत्म कर भी नहीं मिल रहा प्रतिसाद, अपने अंदर के प्रेम को सूखाकर जिया नहीं जा सकता और फ़िर लौटना तो है ही जीवन की सांध्य बेला पुकार ही रही है चल पडो उस ओर जहा उड़ जाएगा हंस अकेला जग दर्शन का मेला/जैसे पाख गिरे तरूवर के (मन की गांठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
Comments