सुबू चार पांच बजे उठकर बस स्टेंड पहुँचना और भोपाल जानेवाली बसों से अखबार उतारना, गिनना, छोटे लोंढो को बांटने को देना, फ़िर बचे खुचे अखबार बेचना, नो बजे के करीब घर जाना थोड़ी देर तक और सोना, फ़िर बारह बजे घर से झकास खादी का सफ़ेद कलफ किया हुआ कुर्ता पाजामा पहनकर निकलना और किसी भी सरकारी विभाग में जाकर ब्लेकमेल करना कि रूपया दे दो ठाकुर वरना कल के अखबार में छप जाएगा पुरे का पूरा घोटाला....आते समय थाने से दारू की बोतल का इंतज़ाम, देर रात सरकारी अस्पताल में घुसकर जवान खूबसूरत लेडी डाक्टर से हुज्जत करना फ़िर उसके हाथ से चांटे खाना, फ़िर अस्पताल के खिलाफ लिखना कि सुविधाएँ नहीं है बला बला ........ये सब चुतियापे पत्रकारिता कहलाता है इस देवास में!!! भला हो कि अब अखबार वाले ब्यूरो रखने लगे है जिनके सरकारी भाई बहन अखबार का पेट भरते है, कमीशन वसूलते है, फोन अटेंड करते है और नौकरी तो बिलकुल नहीं करते अब ये चुतियापे तो देवास में ही संभव है ना. ( देवास के चुतियापे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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