जेएनयू में मनोज वाजपेयी से जुड़े आयोजन पर वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल की व्याख्या के मद्देनजर युवा मीडिया क्रिटिक विनीत कुमार ने भी अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है : मॉडरेटर
मनोज वाजपेयी के जेएनयू जाने और वहां के छात्रों के लहालोट हो जाने पर दिलीप मंडल ने जो सवाल उठाये हैं और उसके बाद बहस की जो गर्माहट पैदा हुई है, वो दरअसल अकादमिक संस्थानों को सिनेमा प्रोमोशन के लिए कम लागत के अड्डे के तौर पर विकसित होने की आशंका और जेएनयू जैसे शिक्षण संस्थानों में पढ़ रहे छात्रों के व्यवहार को लेकर है। मुझे नहीं लगता है कि आनन-फानन में इसे स्कूल-कॉलेजों की वाद-विवाद प्रतियोगिता की तरह एक शीर्षक बनाकर पक्ष-विपक्ष में कतारें खड़ी कर देनी चाहिए। दिलीप मंडल की बात पर जैसे बाकी लोगों ने असहमति दर्ज की है, उसी क्रम में आगे बढ़ने के बजाय इस सिरे से बात करना ज्यादा सही होगा कि वो दरअसल कहना क्या चाह रहे हैं और किस स्थिति को लेकर बात कर रहे हैं?
सीधा सवाल है, आज मनोज वाजपेयी तो कल शाहरुख खान क्यों नहीं, परसों कैटरीना कैफ और परसों राखी सावंत क्यों नहीं? संभव है कल शाहरुख खान आना चाहें और उन्हें चाहे जिस भी कारण से प्रशासन या छात्रों की तरफ से सहयोग न मिले तो देशभर में सांप्रदायिक रंग दे दिया जाएगा, राखी सावंत को आने से रोका जाए तो स्त्री-विमर्श का पुछल्ला छोड़ दिया जाए। ऐसे में बहुत संभव है कि आज जो जेएनयू पॉपुलर संस्कृति के एक साफ-सुथरे रूप का समर्थन कर रहा है, वो उस वक्त फिर से उच्च संस्कृति और निम्न संस्कृति और कलारूप की बहस में जाकर सिकुड़ जाएगा। दिलीप मंडल जो बात कह रहे हैं, उसका सार है कि मनोज वाजपेयी के आने से सभी कलाकारों, मनोरंजन उद्योग में शामिल लोगों के आने के दरवाजे खुल जाने के संकेत साफ तौर पर मिलते हैं।
सवाल है कि क्या आनेवाले समय में जेएनयू मनोरंजन उद्योग का एक हब बनने जा रहा है और ऐसे में जेएनयू के लोग इस स्थिति के लिए तैयार हैं कि आज अगर मनोज वाजपेयी, सुधीर मिश्रा जैसे कलाकारों के आने पर सहमत हैं, तो कल वह उसी खुले दिल से शाहरुख, राखी, कैटरीना के आने पर आपत्ति दर्ज नहीं करेगा?
दूसरी तरफ जेएनयू के छात्र मनोज वाजपेयी के आने पर जिस तरीके से लहालोट हुए, जिसे कि दिलीप मंडल ने मीरा का भक्ति-भाव कहा है, वह दरअसल जेएनयू के छात्र और शोधार्थी का चरित्र नहीं बल्कि उस सिनेमा देखनेवाले उन आम भारतीय दर्शकों की भावना है, जो रूपहले पर्दे के कलाकारों को अपने आस-पास आम मनुष्य की तरह घूमते-टहलते और बतियाते देखते हैं, तो भाव विह्वल हो उठते हैं कि अरे ये तो हम मनुष्यों की तरह ही व्यवहार कर रहे हैं। जेएनयू के छात्रों का ये व्यवहार साफ करता है कि वो या तो जेएनयू कि रिवायत से परिचित नहीं हैं (ऐसा इसलिए कि न्यूकमर होने की स्थिति में उन्हें देशभर के छोटे शहरों और कस्बों से आये अभी तीन-चार महीने ही हुए होंगे) या फिर उनके भीतर कलाकारों को आस्था के बजाय तर्क के आधार पर देखने की आदत विकसित नहीं हुई है। संभव है कि आनेवाले समय में इनमें से अधिकाश छात्र ऐसा करना छोड़ दें और वो कलाकारों को अपना आराध्य मानने के बजाय इस तर्क पर बात रखें कि जिस सिनेमा में आम भारतीय का हांड़-मांस का पैसा लगता आया है, खून पर रिक्शा खींचकर सिनेमा देखने जाता है, आप उनके बीच न जाकर हमारे बीच ब्रांडिंग और प्रोमोशन करने क्यों आते हैं? …और मुझे उम्मीद है कि ऐसा होगा।
मनोज वाजपेयी को देखकर जेएनयू के छात्रों के लहालोट हो जाने की दूसरी बड़ी वजह ये भी रही होगी जिसमें कि वहां के पुराने छात्र भी शामिल होंगे, वो ये कि वो स्टारडम और सिलेब्रेटी के बीच सहज रहने के अभ्यस्त नहीं होंगे। उनके भीतर हमेशा इस बात का भान रहा होगा कि हमारा हीरो हमारे बीच चलकर आया है। ऐसा इसलिए होता है कि जेएनयू की छवि और पूरी ट्रेनिंग हार्डकोर राजनीतिक और सामाजिक बहसों में सक्रिय बने रहने की रही है और इसका साकारात्मक पहलू है कि बहुत जल्द ही यहां आनेवाले छात्रों के बीच इस बात की समझ विकसित हो जाती है कि मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी, कपिल सिव्वल और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता भी समझ के स्तर पर उथले हैं और उनके प्रति प्रतिरोध दर्ज किया जाना चाहिए। राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर काम कर रहे लोगों को लेकर वो स्टारडम या सिलेब्रेटी की फीलिंग नहीं है। इसकी बड़ी वजह है कि इस क्षेत्रों से आनेवाले लोगों का जेएनयू में आकर बहस करना, उनके बीच शामिल होना बहुत ही मामूली बात है। ऐसे में जिस जेएनयू के सिनेमा प्रोमोशन के तौर पर विकसित हो जाने की आशंका से दिलीप मंडल घिर रहे हैं, उसका दूसरा पक्ष ये भी है कि अगर सिने कलाकारों का यहां लगातार आना जारी रहा तो काफी हद तक मीरा की भक्ति-भावना खत्म होगी। जिसकी नहीं खत्म होगी, उसकी तो अपने क्लास टीचर को लेकर भी वही भावना रहती है, उसका आप क्या कर लेंगे?
अब सवाल है कि विश्वविद्यालय में अभिनेताओं को आना चाहिए या नहीं? इस पर बात करना सिरे से बचकानी हरकत होगी। जिस जेएनयू ने सिनेमा और बाकी परफार्मिंग आर्ट्स की पढ़ाई के लिए अलग से आर्ट्स एंड एस्थेटिक डिपार्टमेंट खोल रखा है, वहां भी क्या उन्हीं राजनीतिक चेहरों के आने से काम चल जाएगा? जिन अभिनेताओं पर सेमिनार पेपर, एमफिल और पीएचडी करते-करते छात्र जान दे देते हैं, दिलीपजी, उनसे मिलने, बोलने-बतियाने की गुंजाइश तो बनी रहने दीजिए। आखिर सिर्फ फोटोकॉपी मटीरियल, चैट इंटरव्यू और सिनेमा के दम पर रिसर्च करने की परंपरा भी तो टूटे। विश्वविद्यालय ने जिस दिन ये विभाग खोला, समझिए कि उसने उसी दिन से ऐसे लोगों के आने के दरवाजे खोल दिये। मुझे तो सुनकर हैरानी हो रही है कि अब तक बाकी के कलाकार यहां क्यों नहीं आये और अगर आये तो हमें ठीक-ठीक जानकारी कैसे नहीं हो पायी? मेरे ख्याल से ये कोई बहस का मुद्दा ही नहीं है। बहस का मुद्दा है तो इस बात पर कि …
इन कलाकारों को किस काम के लिए बुलाया जा रहा है? सिनेमा कलाकारों की अक्सर आवाजाही पर यहां दिलीप मंडल की चिंता को शामिल किया जाना जरूरी है कि कल अगर एनएसयूआइ के लोगों ने शाहरुख को चुनाव अभियान के लिए बुला लिया या उनकी पीआर एजेंसी ने ये समझा दिया कि फलां फिल्म की प्रोमोशन के लिए ये सही ठिकाना होगा, एबीवीपी के लोग धर्मेंद्र फैमिली को लेकर आ गये तो क्या इस पर किसी तरह की रोक लग सकेगी? यहीं पर आकर ये विश्वविद्यालय सिनेमा और मनोरंजन उद्योग के प्रोमोशन के लिए सस्ते अड्डे के तौर पर विकसित किया जाएगा। दूसरी स्थिति ये है कि संबंधित विभाग या फिर अलग-अलग सोसाइटी इन कलाकारों को बाकायदा व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित करें और वो छात्रों के बीच आकर बात करें। मनोज वाजपेयी आगमन को हम इसी श्रेणी में रख सकते हैं जिसे कि सिनेमेला के सहयोग से बुलाया गया। अब यहां आकर देखना होगा कि विभाग और सिनेमेला जैसी संस्थाएं किन कलाकारों को व्याख्यान और बातचीत के लिए आमंत्रित करती आयी हैं। अगर इसके पीछे की अंडरटोन क्लासिकल, बेहतर, सार्थक आदि है तो इसका मतलब है कि अगर सतही चीजों और फिल्मों को बाजार लगातार अंधाधुंध तरीके से प्रोमोट कर रहा है, तो शैक्षणिक संस्थानों का ये दायित्व है कि वो बेहतर चीजों और लोगों को प्रोत्साहित करें। ये ऊपरी तौर पर सही दिखती हुई भी आगे चलकर पॉपुलर के भीतर रहकर भी पॉपुलर की अवधारणा के खिलाफ चली जाती है क्योंकि पॉपुलर संस्कृति की अवधारणा ये प्रस्तावित करती है कि संस्कृति का हर रूप अपने तरीके से पॉपुलर होने की प्रक्रिया में शामिल है। ये अलग बात है कि वो इसके लिए अलग क्षेत्र और बाजार का चुनाव करता है। ऐसे में इस आगमन को अगर दिलीप मंडल मनोज वाजपेयी की आनेवाली फिल्म लंका के प्रोमोशन के तौर पर देख रहे हैं, तो वो भी सिरे से गलत नहीं है। ये सच है कि मनोज वाजपेयी ने वहां इससे संबंधित कोई बात नहीं की (रिपोर्ट के आधार पर)लेकिन विज्ञापन और प्रोमोशन का ये एकमात्र तरीका नहीं है। जिस किसी ने भी एड अपील चैप्टर थोड़ी सी भी पढ़ी होगी, तो उसमें पारंपरिक के बजाय सरोगेट एड का असर ज्यादा होता है। इसलिए प्रोमोशन के बावजूद भी क्या मनोज वाजपेयी वहां के श्रोताओं को सिनेमा और अभिनय की बातचीत के स्तर पर कुछ दे भी गये या नहीं? और बेहतर हो कि इस पर वहां शामिल लोग ही बात करें।
आखिरी बात, जिस पर लेकर बात होनी चाहिए, जिसे कि अधिकांश लोगों ने दिलीप मंडल की चिढ़ानेवाली शैली की वजह से दिल पर ले लिया और आहत हो गये – वो ये कि हम अकादमिक दुनिया में जीते हैं, तो ये बेहतर समझ सकते हैं कि मनोज वाजपेयी के आने पर जेएनयू के छात्रों के बीच क्या स्थिति हुई होगी … जो स्टारडम के बीच बोलने-बतियाने के अभ्यस्त नहीं हैं या फिर अभी हाल में जेएनयू आये हैं, उनका मानसिक गठन कैसा होगा लेकिन यकीन मानिए अकादमिक दुनिया के बाहर भी जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय की अपनी साख है, अपना जलवा है। यहां के छात्रों की ओर से कही और लिखी गयी बात दूसरे क्षेत्र के लोगों के लिए एक तरह से सर्टिफिकेट का काम करते हैं। तत्काल कलाकार आपके यहां आकर भले ही ऐसा शो करते हों कि आपको उपकृत कर रहे हैं लेकिन बाहर जाकर माहौल बनाते हैं, जिसमें कि पीआर एजेंसी और मीडिया भी शामिल होते हैं कि रिसर्चर लोगों ने भी उनकी तारीफ की। आप भूल जाइए कि मनोज वाजपेयी के आगमन की रिपोर्ट किसने लिखी, लेकिन ये तो जरूर याद रहता है कि लिखनेवालों के साथ जेएनयू का टैग लगा है। अब सवाल है कि यहां का रिसर्चर उसी लहालोट भाव में रिपोर्टिंग करेगा, जिस भाव से जागरण के संवाददाताओं ने बाबरी मस्जिद ढाहनेवाले स्वयंसेवकों को लेकर की थी? वो उस नजारे के वक्त दर्शक जरूर थे, लेकिन लिखते वक्त उन्हें बतौर एक संवाददाता और जेएनयू रिसर्चर की हैसियत में आ जाना चाहिए था। ये मेरी तरफ से कोई की जानेवाली शिकायत नहीं है बल्कि ये उस पैटर्न को तोड़ने के लिए जरूरी है, जहां हमारी-आपकी भावनाएं इकॉनमी के ढांचे में ढलनी शुरू हो जाती है। ये सही है कि आयोजक हाथ छूने के लिए बेताब दर्शकों को पहले सर्वे कराकर छांट नहीं देते लेकिन जो कार्यक्रम बातचीत की शक्ल में शामिल था, उसकी रिपोर्टिंग बातचीत को गौण करके बननेवाले माहौल पर शामिल करना बहुत अधिक न्यायसंगत तो नहीं ही था न। माफ कीजिएगा, मैं लिखने को जरूरी मानता हूं इसलिए न तो रिपोर्ट लिखने को लेकर कोई आपत्ति है और न ही दिलीप मंडल की मीरा की भक्ति-भावना कहकर उपहास ही उड़ाना जरूरी समझता हूं। बस ये कि आप प्लीज ऐसा करके पीआर एजैंसियों को एक कमाऊ फार्मूला न थमा दें, जिस पर कि कल को आपका ही नियंत्रण न रह सके। ऐसे कार्यक्रम इससे सौ गुनी ताकत के साथ शुरू होने लग जाएं और कलाकारों के प्रति सदिच्छा का भाव मार्केटिंग स्ट्रैटजी में तब्दील हो जाएं। बाकी आप सब ये कहने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं कि ओबीसी की राजनीति को लेकर दिलीप मंडल इन सबसे अलग क्या कर रहे हैं? अगर जेएनयू शरद यादव और उदितराज की राजनीति का ठिकाना बन सकता है तो मनोज वाजपेयी और पीयूष मिश्रा की संस्कृति का क्यों नहीं?
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(विनीत कुमार। युवा और तीक्ष्ण मीडिया विश्लेषक। ओजस्वी वक्ता। दिल्ली विश्वविद्यालय से शोध। मशहूर ब्लॉग राइटर। कई राष्ट्रीय सेमिनारों में हिस्सेदारी, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। हुंकार और टीवी प्लस नाम के दो ब्लॉग। उनसे vineetdu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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