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मन की गाँठे

उसे लगता था कि वो हमेशा से ही सही रहा था, पता नहीं इस जिद में में वो सबसे लडता-भिड़ता रहा, हर बात में उसे षड्यंत्र नजर आता, जहां वो जाता या छोडता-उसे गडबड नजर आती, कभी कुछ जमता ही नहीं, पकडो छोडो के नाम पर जीवन के इस मुकाम पर आ गया था कि परिवार के नाम बेहद अकेला, दोस्तों के नाम पर खुद से "मोनोलाग", साथ के नाम पर परछाई भी नहीं, विचारधारा के नाम पर घटती-बढती सोच!!! बस एक लंबी सूनी राह पर चलता जा रहा है पता ये सब सही है या चलने दो के नाम पर सब चलता है जैसी सोच, सच के नाम पर झूठ के साथ पेट पालने की मजबूरियां, नौकरी के नाम पर चापलूसी और लेन-देन का दुष्चक्र, विचारधारा के नाम पर रीढविहीन हो जाना, दोस्तों के नाम पर उधारी लेने वाले और सिर्फ काम निकालने वाले, परिजनों के नाम पर रिश्तों की कडुवाहट, साथ के नाम पर पीठ पीछे छुरा भोंकने वाले, संसार एडजस्ट करने वालो का है और वो अपनी शर्तों पर इस कोख से कब्र के सफर को जारी रखना चाहता था.........पर आज यकायक उसने ठान लिया कि वो सब खत्म कर देगा और फ़िर सब खत्म हो जाएगा, वैसे भी उसके रक्त बीज यहाँ थे नहीं-जो पुनः पल्लवित हो और फूले-फलें .......बस खुद को खत्म करके सबको सुख देकर वो चल देगा एक अनंतिम सफर पर, इस अंतिम अरण्य को पार करने में बस चंद लम्हें रह गए है......बहुत उद्दाम वेग से बुला रही है मौत उसे और वो घिसट- घिसट कर उसके पास पंहुच रहा ही है....(मन की गाँठे)

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हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही