इतनी देर हो गयी है आसमान कैसे मटमैला सा हो रहा है और सूरज का अभी तक कोई अता -पता नहीं है लगता है जैसे शाम की गोधूली बेला अभी तक खत्म नहीं हुई है पूरी रात अपना आँचल पसारकर चली गयी है, पशु रंभाते हुए जंगल चले गए है, मानुस जात अपने काम धंधे में लग गयी है, पर रोशनी का पता नहीं है- ना धूप है ना हवा, गली मोहल्लो में कबाडा इकठ्ठे करने वाले चिल्ला रहे है और घर की सफाई से निकली बेहद काम की चीजें कबाड़े में जा रही है!!! कैसा समय है ये जो सालो से सहेजी चीजों को एक ही झटके में सड़क पर खड़े गंदे से ठेले पर ला रहा है, जैसे ढो रहा था अभी तक रिश्तों के मानिंद संबंधो को??? अचानक याद आया कि सूरज अभी तक गायब है और एक धुंआ सा, अन्धेरा सा, हांफता सा उजाला पूरा दम लगाकर इसे सुबह बनाने की पुरजोर कोशिश कर रहा है तो तब लगा कि प्रयास तो करने ही पड़ते है अँधेरे से लडने के या रिश्तों को बनाए रखने के, बोलना तो पडता ही है चाहे कोई कितना भी शुष्क हो जाए भावनाओं की जमीन पर, अपने जीने के लिए तो मरना ही पडता है बार-बार ताकि एक दिन सुकून से पूरी तडफ और बेचैनी के साथ चिरनिद्रा में सोया जा सके....और इस कलरव से दूर, कही बहुत दूर जाया जा सके.... कबाडा ढूंढने वाले आ गए है ---गली में पुराने सामान की बोली लग रही है और में सोचता हूँ कि इस शरीर को भी कितने बरस हो गए है सडते - गलते और ढोते हुए बोझ अपनी ही आत्मा का. कितने मौसम बदल गए है पर क्षुधा शांत नहीं हुई, जीने की लालसाएं चरम् पर है और में दौडकर आवाज देता हूँ ......ए कबाड़े वाले इधर आना ......सूरज अभी भी कही लुप्तप्राय सा है ....(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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