नए नवेले जब भी कुछ लिखते कविता, कहानी या घटिया सी तुकबंदी या चाहे पत्र संपादक के नाम भी, तो शहर के चार पांच मंचों पर जाकर उल्टी कर देते, कही से प्रेस विज्ञप्ति छपती तो उसकी कटिंग काटकर घर में जडवा कर रख लेते और फ़िर पुरे मोहल्ले को बताते कि लों हम लेखक बन् गए है अब तो, और वो दिन दूर नहीं जब निर्मल वर्मा हमारे घर पानी भरेंगे. एक बड़े बुजुर्ग ख्यातनाम थे तो कई दुस्साहस करके उनके घर पंहुच जाते कि मैंने लिखा है वो बड़े प्यार से चाय पिलाते और कहते "मियाँ बढ़ाई का काम सीख लों बीवी बच्चे पाल लोगे, इस कविता में कुछ नहीं रखा है बढ़ईगीरी में चार पैसे कमा लोगे" पर फ़िर भी ससुरे सुनते नहीं थे लिखते तो फ़िर भी थे --तूफानी और दर्द से लेकर ना जाने क्या क्या नाम थे इन कवियों के. हरदा के जैसे कवि प्रताडना मंच भी बनाने के प्रयास हुए पर सफल नहीं हो पाए आजकल ये टुच्चे कही भी बैठकर माँ हिन्दी भारती की सेवा कर लेते है. एक दूसरे के सामने तारीफ़ के पुल और पीठ पीछे मलयालम या कन्नड़ से अनूदित कर साहित्य की माँ भैन कर देते है और फ़िर कहते है साले सब चुतिया है. सुना है सरकार का भी कोई मंच इस तरह के काम को प्रमोट करता है (देवास के चुतियापे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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