चकमक और एकलव्य पर मेरे लिखे कमेंट्स के बाद बहुत सारी प्रतिक्रियाये आ रही है. वरिष्ठ साथी और चिन्तक, पत्रकार राकेश दीवान की भी ऐसी ही कुछ प्रतिक्रया मेरे पास है हम सब एकलव्य के बनने और प्रौढ़ होते के कर्मठ लोग है पर सवाल यह है कि कौन सुन रहा है, यही है सिविल सोसायटी और इनके गुण धर्म.....पत्र पेश है......
संदीप,
तुम्हारा दर्द समझा जाना चाहिए, लेकिन इसे जानना, समझना भी जरूरी है कि खुद 'एकलव्य' आज कितना 'घर-घुस्सू' हो गया है। उस जमाने में 'एकलव्य' के द्वार सभी के लिए खुले थे और इनमें केवल इंसान ही शामिल नहीं थे। नए और समसामयिक विचारों को भी जगह मिला करती थी। आज 'एकलव्य' के पास इस तरह की गतिविधियों के लिए समय और रुचि नहीं है।
मेरे खयाल से यह हर उस संस्थान के साथ होता है जो फूलकर इतनी बडी हो जाती है कि असली काम उसे चलाए रखनाभर बन जाता है। जिस समाज के नाम पर काम उठाया जाता है बाद में उसी समाज के साथ कोई संवाद कायम नहीं रह पाता। 'एकलव्य' इससे भिन्न नहीं है और वहां भी बाहरी दुनिया से कटते जाने की कोई चिंता नहीं है। अलबत्ता, भारी बजट, दर्जनों कार्यकर्ता, लगातार तरह-तरह के प्रकाशन और कमाल की भाग-दौड के बावजूद उसमें जीवन दिखाई नहीं पडता।
तुम्हारे पत्र से पता चला कि 'चकमक' के तीन सौवें अंक का जलसा होने वाला है और उसमें अनेक विद्वान हिस्सा लेने वाले हैं। मैं अब तक खुद को भी 'एकलव्य' का मित्र मानता था, लेकिन आज तक इस कार्यक्रम की कोई सूचना नहीं होने से मुझे भी अपनी हैसियत पता चल गई है।
मुझे लगता है कि इस मामले पर 'एकलव्य' समेत सभी मित्रों को विचार करना चाहिए। आखिर किसी सामाजिक, स्वयंसेवी कही जाने वाली संस्था के चाल-ढाल पर हम सभी को चिंतित होना चाहिए।
राकेश।
पुन: तुम चाहो तो इस पत्र को सभी को मेल कर सकते हो।
रादी।
संदीप,
तुम्हारा दर्द समझा जाना चाहिए, लेकिन इसे जानना, समझना भी जरूरी है कि खुद 'एकलव्य' आज कितना 'घर-घुस्सू' हो गया है। उस जमाने में 'एकलव्य' के द्वार सभी के लिए खुले थे और इनमें केवल इंसान ही शामिल नहीं थे। नए और समसामयिक विचारों को भी जगह मिला करती थी। आज 'एकलव्य' के पास इस तरह की गतिविधियों के लिए समय और रुचि नहीं है।
मेरे खयाल से यह हर उस संस्थान के साथ होता है जो फूलकर इतनी बडी हो जाती है कि असली काम उसे चलाए रखनाभर बन जाता है। जिस समाज के नाम पर काम उठाया जाता है बाद में उसी समाज के साथ कोई संवाद कायम नहीं रह पाता। 'एकलव्य' इससे भिन्न नहीं है और वहां भी बाहरी दुनिया से कटते जाने की कोई चिंता नहीं है। अलबत्ता, भारी बजट, दर्जनों कार्यकर्ता, लगातार तरह-तरह के प्रकाशन और कमाल की भाग-दौड के बावजूद उसमें जीवन दिखाई नहीं पडता।
तुम्हारे पत्र से पता चला कि 'चकमक' के तीन सौवें अंक का जलसा होने वाला है और उसमें अनेक विद्वान हिस्सा लेने वाले हैं। मैं अब तक खुद को भी 'एकलव्य' का मित्र मानता था, लेकिन आज तक इस कार्यक्रम की कोई सूचना नहीं होने से मुझे भी अपनी हैसियत पता चल गई है।
मुझे लगता है कि इस मामले पर 'एकलव्य' समेत सभी मित्रों को विचार करना चाहिए। आखिर किसी सामाजिक, स्वयंसेवी कही जाने वाली संस्था के चाल-ढाल पर हम सभी को चिंतित होना चाहिए।
राकेश।
पुन: तुम चाहो तो इस पत्र को सभी को मेल कर सकते हो।
रादी।
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