इस अँधेरे कोने में सब है साँसे और जीवन, कोलाहल और सुकून, दर्प और सिसकियाँ, आरोह और अवरोह, मौत और जिंदगी की अंधी दौड़..इस कोने में संसार का सबसे ज्यादा उजाला आ सकता है बस एक रोशनी की किरण इसे उजास से भर सकती है, एक फुहार इस पुरे कोने में सौंधी महक फैला सकती है, एक टिमटिमाता जुगनू इस तम को सोख लेगा, एक ही झलक में इस कोने की झोली में क्षितिज सा विस्तार आ सकता है, इस कोने में अपार संभावनाएं है बस एक छोटी सी पोटली है जो खुलती नहीं है ये चाभी तुम्हारे पास है और ये कोना सुरक्षित है सिर्फ तुम्हारे लिए......तुम जो अब तक फलक पर धुंध से रहे हो मेरे लिए और में कस्तूरी मृग सा बेचैन होकर यहाँ वहाँ घूम रहा हूँ बस इस कोने से उस कोने तक और अन्धेरा बढ़ रहा है, तुम्हारा इंतज़ार है. विदाई की बेला है, पगुराई हुई सी देह लौट जाना चाहती है अपने शाश्वत स्वरुप में और फ़िर नहीं कही भी कोई कोना, ना कोई अपेक्षा, ना कोई उम्मीद... सब नश्वर है- में, हम तुम और ये कोने ठीक है ना.....(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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