चारों ओर शोर है, रातभर का जागरण है, अन्न से दूर, सिर्फ कुछ ही चीजों पर निर्भर जीवन, एक श्रद्धाभाव, नित अपने आप को चुनौती देना और कुछ कर गुजरने की बेहद कठिन घड़ी में जीवित रख पाना और मसोजकर रह जाना उन सब सांसारिक भावो के लिए जो निम्नतर कर देते है, समर्पण के बाद का सुख और बहुत कुछ पा लेने की आकांक्षा अपने आप से फरेब नहीं तो और क्या है, इस नाट्यशाला के चतुर सुजान यवनिका के पीछे से डोर साधे रखे है और बड़ी निर्ममता से इस जाजम पर नृत्य में पारंगत कठपुतलियो को लगातार नचवा रहे है वे लोग जो जानते है कि शोरगुल भी एक स्थायी भाव है जीवन का--- बस यही से सुनाई नहीं देती सिसकिया, क्रंदन, विलाप और जानता हूँ कि आँसुओ के गिराने की कोई थपताल नहीं होती.......आरोह-अवरोह जारी है जीवन का...और चारों ओर नगाड़े जोरों से बज रहे है(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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